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तम॑स्य पृ॒क्षमुप॑रासु धीमहि॒ नक्तं॒ यः सु॒दर्श॑तरो॒ दिवा॑तरा॒दप्रा॑युषे॒ दिवा॑तरात्। आद॒स्यायु॒र्ग्रभ॑णवद्वी॒ळु शर्म॒ न सू॒नवे॑। भ॒क्तमभ॑क्त॒मवो॒ व्यन्तो॑ अ॒जरा॑ अ॒ग्नयो॒ व्यन्तो॑ अ॒जरा॑: ॥

English Transliteration

tam asya pṛkṣam uparāsu dhīmahi naktaṁ yaḥ sudarśataro divātarād aprāyuṣe divātarāt | ād asyāyur grabhaṇavad vīḻu śarma na sūnave | bhaktam abhaktam avo vyanto ajarā agnayo vyanto ajarāḥ ||

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Pad Path

तम्। अ॒स्य॒। पृ॒क्षम्। उप॑रासु। धी॒म॒हि॒। नक्त॑म्। यः। सु॒दर्श॑ऽतरः। दिवा॑ऽतरात्। अप्र॑ऽआयुषे। दिवा॑तरात्। आत्। अ॒स्य॒। आयुः॑। ग्रभ॑णऽवत्। वी॒ळु॒। शर्म॑। न। सू॒नवे॑। भ॒क्तम्। अभ॑क्तम्। अवः॑। व्यन्तः॑। अ॒जराः॑। अ॒ग्नयः॑। व्यन्तः॑। अ॒जराः॑ ॥ १.१२७.५

Rigveda » Mandal:1» Sukta:127» Mantra:5 | Ashtak:2» Adhyay:1» Varga:12» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:19» Mantra:5


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर न्यायाधीशों को क्या अनुष्ठान वा आचरण करने चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! (यः) जो (सुदर्शतरः) अतीव सुन्दर देखने योग्य पूरी कलाओं से युक्त चन्द्रमा के समान राजा (अस्य) इस संसार का (दिवातरात्) अत्यन्त प्रकाशवान् सूर्य से (अप्रायुषे) जो व्यवहार नहीं प्राप्त होता उसके लिये (नक्तम्) रात्रि में सब पदार्थों को दिखलाता सा है (तम्) उस (पृक्षम्) उत्तम कामों का सम्बन्ध करनेवाले को (दिवातरात्) अतीव प्रकाशवान् सूर्य के तुल्य उससे (उपरासु) दिशाओं में हम लोग (धीमहि) धारण करें अर्थात् सुने (आत्) इसके अनन्तर (अस्य) इस मनुष्य का (ग्रभणवत्) जिसमें प्रशंसित सब व्यवहारों का ग्रहण उस (वीळु) दृढ़ (भक्तम्) सेवन किये वा (अभक्तम्) न सेवन किये हुए (अवः) रक्षा आदि युक्त कर्म और (आयुः) जीवन को (सूनवे) पुत्र के लिये (न) जैसे वैसे (शर्म) घर को (व्यन्तः) विविध प्रकार से प्राप्त होते हुए (अजराः) पूरी अवस्थावाले वा (अग्नयः) बिजुली रूप अग्नि के समान (व्यन्तः) सब पदार्थों की कामना करते हुए (अजराः) अवस्था होने से रहित हम लोग धारण करें ॥ ५ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कर है। जैसे चन्द्रमा तारागण और ओषधियों को पुष्ट करता है, वैसे सज्जनों को प्रजाजनों का पालन-पोषण करना चाहिये। जैसे सन्तानों को पिता-माता तृप्त करते हैं, वैसे सब प्राणियों को हम लोग तृप्त करें ॥ ५ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्न्यायाधीशैः किमनुष्ठेयमित्याह ।

Anvay:

हे मनुष्या यः सुदर्शतरोऽस्य दिवातरादप्रायुषे नक्तं सर्वान् दर्शयतीव तं पृक्षं दिवातरादुपरासु वयं धीमहि। आदस्य ग्रभणवद्वीळु भक्तमभक्तमव आयुः सूनवे न शर्म व्यन्तोऽजरा अग्नय इव व्यन्तोऽजरा वयं धीमहि ॥ ५ ॥

Word-Meaning: - (तम्) (अस्य) संसारस्य (पृक्षम्) सम्पृक्तारम् (उपरासु) दिक्षु। उपरा इति दिङ्ना०। निघं० १। ६। (धीमहि) दधीमहि (नक्तम्) रात्रौ (यः) (सुदर्शतरः) सुष्ठु द्रष्टुं योग्यः सुदर्शोऽतिशयेन सुदर्शः पूर्णकलश्चन्द्रइव (दिवातरात्) अतिशयेन दिवा दिवातरस्तस्मात् सूर्यात् (अप्रायुषे) यः प्रैति स प्रायुट् न प्रायुडप्रायुट् तस्मै (दिवातरात्) अतिशयेन दिवातरः सूर्यइव तस्मात् (आत्) (अस्य) जनस्य (आयुः) जीवनम् (ग्रभणवत्) प्रशस्तं ग्रभणं ग्रहणं विद्यते यस्मिंस्तत् (वीळु) दृढम् (शर्म) गृहम् (न) इव (सूनवे) पुत्राय (भक्तम्) सेवितम् (अभक्तम्) असेवितम् (अवः) रक्षणादियुक्तम् (व्यन्तः) व्याप्नुवन्तः (अजराः) वयोहानिरहिताः (अग्नयः) विद्युत इव (व्यन्तः) कामयमानाः (अजराः) वयोहानिविरहाः ॥ ५ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा चन्द्रो नक्षत्राण्योषधीश्च पोषयति तथा सज्जनैः प्रजाः पोषणीयाः। यथा सन्तानान् पितरौ प्रीणीतस्तथा सर्वान् प्राणिनो वयं प्रीणीयाम ॥ ५ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा चंद्र नक्षत्र व औषधी (वृक्ष) यांना पुष्ट करतो तसे सज्जनांनी प्रजेचे पालनपोषण केले पाहिजे. जसे माता-पिता संतानांना संतुष्ट करतात तसे सर्व प्राण्यांना आम्ही संतुष्ट करावे. ॥ ५ ॥