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दृ॒ळ्हा चि॑दस्मा॒ अनु॑ दु॒र्यथा॑ वि॒दे तेजि॑ष्ठाभिर॒रणि॑भिर्दा॒ष्ट्यव॑से॒ऽग्नये॑ दा॒ष्ट्यव॑से। प्र यः पु॒रूणि॒ गाह॑ते॒ तक्ष॒द्वने॑व शो॒चिषा॑। स्थि॒रा चि॒दन्ना॒ नि रि॑णा॒त्योज॑सा॒ नि स्थि॒राणि॑ चि॒दोज॑सा ॥

English Transliteration

dṛḻhā cid asmā anu dur yathā vide tejiṣṭhābhir araṇibhir dāṣṭy avase gnaye dāṣṭy avase | pra yaḥ purūṇi gāhate takṣad vaneva śociṣā | sthirā cid annā ni riṇāty ojasā ni sthirāṇi cid ojasā ||

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Pad Path

दृ॒ळ्हा। चि॒त्। अ॒स्मै॒। अनु॑। दुः॒। यथा॑। वि॒दे। तेजि॑ष्ठाभिः। अ॒रणि॑ऽभिः। दा॒ष्टि॒। अव॑से। अ॒ग्नये॑। दा॒ष्टि॒। अव॑से। प्र। यः। पु॒रूणि॑। गाह॑ते। तक्ष॑त्। वना॑ऽइव। शो॒चिषा॑। स्थि॒रा। चि॒त्। अन्ना॑। नि। रि॒णा॒ति॒। ओज॑सा। नि। स्थि॒राणि॑। चि॒त्। ओज॑सा ॥ १.१२७.४

Rigveda » Mandal:1» Sukta:127» Mantra:4 | Ashtak:2» Adhyay:1» Varga:12» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:19» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर न्यायाधीशों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे मनुष्यो ! (यथा) जैसे विद्वान् (तेजिष्ठाभिः) अत्यन्त तेजवाली (अरणिभिः) अरणियों से (अस्मै) इस (विदे) शास्त्रवेत्ता (अवसे) रक्षा करनेवाले (अग्नये) अग्नि के समान वर्त्तमान सभाध्यक्ष के लिये (दाष्टि) ओविली को घिसने से काटता वा विद्वान् जन (दृढा) (स्थिरा) निश्चल (चित्) भी विज्ञानों के (अनु, दुः) अनुक्रम से देवें, वैसे (यः) जो (अवसे) रक्षा आदि करने के लिये (दाष्टि) काटता अर्थात् उक्त क्रिया को करता वा (तक्षत्) अपने तेज से जल आदि को छिन्न-भिन्न करता हुआ सूर्यमण्डल (वनेव) किरणों को जैसे वैसे (शोचिषा) न्याय और सेना के प्रकाश से (पुरूणि) बहुत शत्रु दलों को (प्र, गाहते) अच्छे प्रकार विलोडता वा (ओजसा) पराक्रम से (स्थिराणि) स्थिर कर्मों को (नि) निरन्तर प्राप्त होता (चित्) और (ओजसा) कोमल काम से (अन्ना) खाने योग्य अन्नों को (चित्) भी (नि, रिणाति) निरन्तर प्राप्त होता है, वह सुख को प्राप्त होता है ॥ ४ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। जैसे विद्वान् जन विद्या के प्रचार से मनुष्यों के आत्माओं को प्रकाशित कर सबको पुरुषार्थी बनाते हैं, वैसे न्यायाधीश विद्वान् प्रजाजनों को उद्यमी करते हैं ॥ ४ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनर्न्यायाधीशैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ।

Anvay:

हे मनुष्या यथा विद्वाँस्तेजिष्ठाभिररणिभिरस्मै विदेऽवसेऽग्नये दाष्टि विद्वांसो वा दृढा स्थिरा निश्चलानि चिद्विज्ञानान्यनुदुस्तथा योऽवसे दाष्टि तक्षत्सन् सूर्यो वनेव शोचिषा पुरूणि शत्रुदलानि प्रगाहते। ओजसा स्थिराणि कर्माणि निरिणाति चिदोजसाऽन्ना चिन् निरिणाति स सुखमवाप्नोति ॥ ४ ॥

Word-Meaning: - (दृढा) दृढानि (चित्) (अस्मै) सभाध्यक्षाय (अनु) (दु) दद्युः। अत्र लुङ्यडभावः। (यथा) येन प्रकारेण (विदे) विदुषे (तेजिष्ठाभिः) अतिशयेन तेजस्विनीभिः (अरणिभिः) (दाष्टि) दशति (अवसे) रक्षकाय (अग्नये) अग्नयइव वर्त्तमानाय (दाष्टि) दशति (अवसे) रक्षणाद्याय (प्र) (यः) (पुरूणि) बहूनि (गाहते) विलोडते (तक्षत्) जलादीनि तनूकुर्वन् (वनेव) रश्मय इव। वनमिति रश्मिना०। निघं० १। ५। (शोचिषा) न्यायसेनाप्रकाशेन (स्थिरा) स्थिराणि (चित्) अपि (अन्ना) अत्तुमर्हाण्यन्नानि (नि) (रिणाति) प्राप्नोति (ओजसा) पराक्रमेण (नि) (स्थिराणि) (चित्) अपि (ओजसा) कोमलेन कर्मणा ॥ ४ ॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। यथा विपश्चितो विद्याप्रचारेण मनुष्याणामात्मनः प्रकाश्य सर्वान् पुरुषार्थे नयन्ति तथा विद्वांसो न्यायाधीशाः प्रजा उद्यमयन्ति ॥ ४ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. जसे विद्वान लोक विद्येच्या प्रचाराने माणसांच्या आत्म्यात प्रकाश पाडतात व सर्वांना पुरुषार्थी बनवितात तसे न्यायाधीश विद्वान प्रजेला उद्योगी बनवितात. ॥ ४ ॥