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आ॒रे ते॑ गो॒घ्नमु॒त पू॑रुष॒घ्नं क्षय॑द्वीर सु॒म्नम॒स्मे ते॑ अस्तु। मृ॒ळा च॑ नो॒ अधि॑ च ब्रूहि दे॒वाधा॑ च न॒: शर्म॑ यच्छ द्वि॒बर्हा॑: ॥

English Transliteration

āre te goghnam uta pūruṣaghnaṁ kṣayadvīra sumnam asme te astu | mṛḻā ca no adhi ca brūhi devādhā ca naḥ śarma yaccha dvibarhāḥ ||

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Pad Path

आ॒रे। ते॒। गो॒ऽघ्नम्। उ॒त। पु॒रु॒ष॒ऽघ्नम्। क्षय॑त्ऽवीर। सु॒म्नम्। अ॒स्मे इति॑। ते॒। अ॒स्तु॒। मृ॒ळ। च॒। नः॒। अधि॑। च॒। ब्रू॒हि॒। दे॒व॒। अध॑। च॒। नः॒। शर्म॑। य॒च्छ॒। द्वि॒ऽबर्हाः॑ ॥ १.११४.१०

Rigveda » Mandal:1» Sukta:114» Mantra:10 | Ashtak:1» Adhyay:8» Varga:6» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:16» Mantra:10


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर राजा-प्रजा के धर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।

Word-Meaning: - हे (क्षयद्वीर) शूरवीर जनों का निवास कराने और (देव) दिव्य अच्छे-अच्छे कर्म करनेहारे विद्वान् सभापति ! (पुरुषघ्नम्) पुरुषों को मारने (च) और (गोघ्नम्) गौ आदि उपकार करनेहारे पशुओं के विनाश करनेवाले प्राणी को निवार करके (ते) आपके (च) और (अस्मे) हम लोगों के लिये (सुम्नम्) सुख (अस्तु) हो, (अधा) इसके अनन्तर (नः) हम लोगों को (मृड) सुखी कीजिये (च) और मैं आपको सुख देऊँ, आप हम लोगों को (अधिब्रूहि) अधिक उपदेशक देओ (च) और मैं आपको अधिक उपदेश करूँ (द्विबर्हाः) व्यवहार और परमार्थ के बढ़ानेवाले आप (नः) हम लोगों के लिये (शर्म्म) घर का सुख (यच्छ) दीजिये (च) और आपके लिये मैं सुख देऊँ। सब हम लोग धर्मात्माओं के (आरे) निकट और दुराचारियों से दूर रहें ॥ १० ॥
Connotation: - मनुष्यों को चाहिये कि यत्न के साथ पशु और मनुष्यों के विनाश करनेहारे दुराचारियों से दूर रहें और अपने से उनका दूर निवास करावें। राजा और प्रजाजनों को परस्पर एक दूसरे से उपदेश कर सभा बना और सबकी रक्षा कर व्यवहार और परमार्थ का सुख सिद्ध करना चाहिये ॥ १० ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुना राजप्रजाधर्म उपदिश्यते ।

Anvay:

हे क्षयद्वीर देव पुरुषघ्नं गोघ्नं च निवार्य तेऽस्मे च सुम्नमस्तु। अधाथ त्वं नोऽस्मान् मृडाहं च त्वां मृडानि त्वं नोऽस्मानधिब्रूहि। अहं त्वां चाधिब्रुवाणि। द्विबर्हास्त्वं नः शर्म यच्छ। अहं वः शर्म यच्छानि सर्वे वयमारे धर्मात्मनां निकटे दुष्टात्मभ्यो दूरे च वसेम ॥ १० ॥

Word-Meaning: - (आरे) समीपे दूरे च (ते) तव सकाशात् (गोघ्नम्) गवां हन्तारम् (उत) (पूरुषघ्नम्) पुरुषाणां हन्तारम् (क्षयद्वीर) शूरवीरनिवासक (सुम्नम्) सुखम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (ते) तुभ्यम् (अस्तु) भवतु (मृडय) अत्रान्तर्भावितो ण्यर्थः। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (च) (नः) अस्मान् (अधि) आधिक्ये (च) (ब्रूहि) आज्ञापय (देव) दिव्यकर्मकारिन् (अध) आनन्तर्ये। अत्र वर्णव्यत्ययेन थस्य धो निपातस्य चेति दीर्घश्च। (च) (नः) (शर्म) गृहसुखम् (यच्छ) देहि (द्विबर्हाः) द्व्योर्व्यवहारपरमार्थयोर्वर्धकः ॥ १० ॥
Connotation: - मनुष्यैः प्रयत्नेन पशुघातिकेभ्यो मनुष्यमारेभ्यश्च दूरे निवसनीयम्, स्वेभ्य एते दूरे निवासनीयाः। राज्ञा प्रजापुरुषैश्च परस्परमुपदिश्य सभां निर्माय रक्षणं विधाय व्यवहारपरमार्थौ साधनीयौ ॥ १० ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - माणसांनी पशू व माणसांचा विनाश करणाऱ्या दुराचारी लोकांपासून प्रयत्नपूर्वक दूर राहावे व त्यांना दूर ठेवावे. राजा व प्रजा यांनी परस्पर एकमेकांना उपदेश करून सभा बनवून सर्वांचे रक्षण करावे व व्यवहार आणि परमार्थाचे सुख सिद्ध करावे ॥ १० ॥