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मा॒ता दे॒वाना॒मदि॑ते॒रनी॑कं य॒ज्ञस्य॑ के॒तुर्बृ॑ह॒ती वि भा॑हि। प्र॒श॒स्ति॒कृद्ब्रह्म॑णे नो॒ व्यु१॒॑च्छा नो॒ जने॑ जनय विश्ववारे ॥

English Transliteration

mātā devānām aditer anīkaṁ yajñasya ketur bṛhatī vi bhāhi | praśastikṛd brahmaṇe no vy ucchā no jane janaya viśvavāre ||

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Pad Path

मा॒ता। दे॒वाना॑म्। अदि॑तेः। अनी॑कम्। य॒ज्ञस्य॑। के॒तुः। बृ॒ह॒ती। वि। भा॒हि॒। प्र॒श॒स्ति॒ऽकृत्। ब्रह्म॑णे। नः॒। वि। उ॒च्छ॒। नः॒। जने॑। ज॒न॒य॒। वि॒श्व॒ऽवा॒रे॒ ॥ १.११३.१९

Rigveda » Mandal:1» Sukta:113» Mantra:19 | Ashtak:1» Adhyay:8» Varga:4» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:16» Mantra:19


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे (विश्ववारे) समस्त कल्याण को स्वीकार करनेहारी कुमारी ! (यज्ञस्य) गृहाश्रम व्यवहार में विद्वानों के सत्कारादि कर्म की (केतुः) जतानेहारी पताका के समान प्रसिद्ध (अदितेः) उत्पन्न हुए सन्तान की रक्षा के लिये (अनीकम्) सेना के समान (प्रशस्तिकृत्) प्रशंसा करने और (बृहती) अत्यन्त सुख की बढ़ानेहारी (देवानाम्) विद्वानों की (माता) जननी हुई (ब्रह्मणे) वेदविद्या वा परमेश्वर के ज्ञान के लिये प्रभात वेला के समान (विभाहि) विशेष प्रकाशित हो, (नः) हमारे (जने) कुटुम्बी जन में प्रीति को (आ, जनय) अच्छे प्रकार उत्पन्न किया कर और (नः) हमको सुख में (व्युच्छ) स्थिर कर ॥ १९ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सत्पुरुष को योग्य है कि उत्तम विदुषी स्त्री के साथ विवाह करे जिससे अच्छे सन्तान हों और ऐश्वर्य नित्य बढ़ा करें क्योंकि स्त्रीसंबन्ध से उत्पन्न हुए दुःखों के तुल्य इस संसार में कुछ भी बड़ा कष्ट नहीं है, उससे पुरुष सुलक्षणा स्त्री की परीक्षा करके पाणिग्रहण करे और स्त्री को भी योग्य है कि अतीव हृदय के प्रिय प्रशंसित रूप गुणवाले पुरुष ही का पाणिग्रहण करे ॥ १९ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ।

Anvay:

हे विश्ववारे कुमारि यज्ञस्य केतुरदितेः पालनायानीकमिव प्रशस्तिकृद्बृहती देवानां माता सती ब्रह्मणे त्वमुषर्वद्विभाहि नोऽस्माकं जने प्रीतिमाजनय व्युच्छ च ॥ १९ ॥

Word-Meaning: - (माता) (देवानाम्) विदुषाम् (अदितेः) जातस्यापत्यस्य अदितिर्जातमिति मन्त्रप्रमाणात्। (अनीकम्) सैन्यवद्रक्षयित्री (यज्ञस्य) विद्वत्सत्कारादेः कर्मणः (केतुः) ज्ञापयित्री पताकेव प्रसिद्धा (बृहती) महासुखवर्द्धिका (वि) विविधतया (भाहि) (प्रशस्तिकृत्) प्रशंसां विधात्री (ब्रह्मणे) परमेश्वराय वेदाय वा (नः) अस्मान् (वि) (उच्छ) सुखे स्थिरीकुरु (आ) (नः) (जने) संबन्धिनि पुरुषे (जनय) (विश्ववारे) या विश्वं सर्वं भद्रं वृणोति तत्संबुद्धौ ॥ १९ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सत्पुरुषेण सत्येव स्त्री विवोढव्या यतः सुसन्ताना ऐश्वर्यं च नित्यं वर्धेत, भार्य्यासंबन्धजन्यदुःखेन तुल्यमिह किञ्चिदपि महत् कष्टं न विद्यते तस्मात् पुरुषेण सुलक्षणया स्त्रिया परीक्षां कृत्वा पाणिग्रहणं स्त्रिया च हृद्यस्य प्रशंसितरूपगुणयुक्तस्य पुरुषस्यैव ग्रहणं कार्य्यम् ॥ १९ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. उत्तम पुरुषांनी उत्तम विदुषी स्त्रीबरोबर विवाह करावा ज्यामुळे चांगली संताने व्हावीत व ऐश्वर्य सतत वाढावे. कारण स्त्रीसंबंधी उत्पन्न झालेल्या दुःखापेक्षा या जगात कोणताही मोठा त्रास नाही. त्यासाठी पुुरुषांनी सुलक्षणा स्त्रीची परीक्षा करून पाणिग्रहण करावे व स्त्रीनेही हृदयाला अत्यंत प्रिय वाटेल अशा प्रशंसित रूपगुणयुक्त पुरुषाचे पाणिग्रहण करावे. ॥ १९ ॥