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स्यूम॑ना वा॒च उदि॑यर्ति॒ वह्नि॒: स्तवा॑नो रे॒भ उ॒षसो॑ विभा॒तीः। अ॒द्या तदु॑च्छ गृण॒ते म॑घोन्य॒स्मे आयु॒र्नि दि॑दीहि प्र॒जाव॑त् ॥

English Transliteration

syūmanā vāca ud iyarti vahniḥ stavāno rebha uṣaso vibhātīḥ | adyā tad uccha gṛṇate maghony asme āyur ni didīhi prajāvat ||

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Pad Path

स्यूम॑ना। वा॒चः। उत्। इ॒य॒र्ति॒। वह्निः॑। स्तवा॑नः। रे॒भः। उ॒षसः॑। वि॒ऽभा॒तीः। अ॒द्य। तत्। उ॒च्छ॒। गृ॒ण॒ते। म॒घो॒नि॒। अ॒स्मे इति॑। आयुः॑। नि। दि॒दी॒हि॒। प्र॒जाऽव॑त् ॥ १.११३.१७

Rigveda » Mandal:1» Sukta:113» Mantra:17 | Ashtak:1» Adhyay:8» Varga:4» Mantra:2 | Mandal:1» Anuvak:16» Mantra:17


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - हे (मघोनि) प्रशंसित धनयुक्त स्त्री ! तू (अस्मे) हमारे और (गृणते) प्रशंसा करते हुए (पत्ये) पति के अर्थ जो (प्रजावत्) बहुत प्रजायुक्त (आयुः) जीव का हेतु अन्न है (तत्) वह (अद्य) आज (नि, दिदीहि) निरन्तर प्रकाशित कर। जो तेरा (रेभः) बहुश्रुत (स्तवानः) गुण प्रशंसाकर्त्ता (वह्निः) अग्नि के समान निर्वाह करनेहारा पति तेरे लिये (विभातीः) प्रकाशवती (उषसः) प्रभात वेलाओं को जैसे सूर्य वैसे (स्यूमना) सकल विद्याओं से युक्त प्रिय (वाचः) वेदवाणियों को (उत्, इयर्त्ति) उत्तमता से जानता हैं, उसको तू (उच्छ) अच्छा निवास कराया कर ॥ १७ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब स्त्री-पुरुष सुहृद्भाव से परस्पर विद्या और अच्छी शिक्षाओं को ग्रहण कर उत्तम अन्न, धनादि वस्तुओं का संचय करके सूर्य के समान धर्म न्याय का प्रकाश कर सुख में निवास करते हैं, तभी गृहाश्रम के पूर्ण सुख को प्राप्त होते हैं ॥ १७ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तमेव विषयमाह ।

Anvay:

हे मघोनि स्त्रि त्वमस्मे गृणते पत्ये च यत्प्रजावदायुरस्ति तदद्य निदिदीहि, यस्तव रेभः स्तवानो वह्निर्वोढा पतिस्त्वदर्थं विभातीरुषसः सूर्य्य इव स्यूमना प्रिया वाच उदियर्त्ति तं त्वमुच्छ ॥ १७ ॥

Word-Meaning: - (स्यूमना) स्यूमानः सकलविद्यायुक्ताः। अत्राकारादेशः। (वाचः) देववाणीः (उत्) उत्कृष्टतया (इयर्ति) जानाति (वह्निः) पावकवद्वोढा विद्वान् (स्तवानः) स्तोतुं शीलः। अत्र स्वरव्यत्ययेनाद्युदात्तत्वम्। (रेभः) बहुश्रोता। अत्र रीङ्धातोरौणादिको भः प्रत्ययः। (उषसः) (विभातीः) विविधतया प्रकाशवतीः (अद्य)। अत्र निपातस्य चेति दीर्घत्वम्। (तत्) (उच्छ) विशिष्टतया वासय (गृणते) प्रशंसते (मघोनि) प्रशस्तधनयुक्ते (अस्मे) अस्मभ्यम् (आयुः) जीवनहेत्वन्नम्। आयुरित्यन्ननामनु पठितम्। निघं० २। ७। (नि) (दिदीहि) प्रकाशय (प्रजावत्) (प्रशस्ताः) प्रजा भवन्ति यस्मात् तत् ॥ १७ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा दम्पती सौहार्देन परस्परं विद्यासुशिक्षाः संगृह्य प्रशस्तान्यन्नधनादीनि वस्तूनि संचित्य सूर्यवद्धर्मन्यायं प्रकाश्य सुखे निवसतस्तदैव गृहाश्रमस्य पूर्णं सुखं प्राप्नुतः ॥ १७ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेव्हा स्त्री-पुरुष सुहृद्भावाने परस्पर विद्या व चांगले शिक्षण ग्रहण करून उत्तम अन्न, धन इत्यादी वस्तूंचा संग्रह करतात व सूर्याप्रमाणे धर्म न्यायाचा प्रकाश करून सुखात राहतात तेव्हाच गृहस्थाश्रमाचे पूर्ण सुख प्राप्त होते. ॥ १७ ॥