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पू॒र्वीरिन्द्र॑स्य रा॒तयो॒ न वि द॑स्यन्त्यू॒तयः॑। यदी॒ वाज॑स्य॒ गोम॑तः स्तो॒तृभ्यो॒ मंह॑ते म॒घम्॥

English Transliteration

pūrvīr indrasya rātayo na vi dasyanty ūtayaḥ | yadī vājasya gomataḥ stotṛbhyo maṁhate magham ||

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Pad Path

पू॒र्वीः। इन्द्र॑स्य। रा॒तयः॑। न। वि। द॒स्य॒न्ति॒। ऊ॒तयः॑। यदि॑। वाज॑स्य। गोऽम॑तः। स्तो॒तृऽभ्यः॑। मंह॑ते। म॒घम्॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:11» Mantra:3 | Ashtak:1» Adhyay:1» Varga:21» Mantra:3 | Mandal:1» Anuvak:3» Mantra:3


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर भी अगले मन्त्र में इन्हीं दोनों का उपदेश किया है-

Word-Meaning: - (यदि) जो परमेश्वर वा सभा और सेना का स्वामी (स्तोतृभ्यः) जो जगदीश्वर वा सृष्टि के गुणों की स्तुति करनेवाले धर्मात्मा विद्वान् मनुष्य हैं, उनके लिये (वाजस्य) जिसमें सब सुख प्राप्त होते हैं, उस व्यवहार, तथा (गोमतः) जिसमें उत्तम पृथिवी, गौ आदि पशु और वाणी आदि इन्द्रियाँ वर्त्तमान हैं, उसके सम्बन्धी (मघम्) विद्या और सुवर्णादि धन को (मंहते) देता है, तो इस (इन्द्रस्य) परमेश्वर तथा सभा सेना के स्वामी की (पूर्व्यः) सनातन प्राचीन (रातयः) दानशक्ति तथा (ऊतयः) रक्षा हैं, वे कभी (न) नहीं (विदस्यन्ति) नाश को प्राप्त होतीं, किन्तु नित्य प्रति वृद्धि ही को प्राप्त होती रहती हैं॥३॥
Connotation: - इस मन्त्र में भी श्लेषालङ्कार है। जैसे ईश्वर वा राजा की इस संसार में दान और रक्षा निश्चल न्याययुक्त होती हैं, वैसे अन्य मनुष्यों को भी प्रजा के बीच में विद्या और निर्भयता का निरन्तर विस्तार करना चाहिये। जो ईश्वर न होता तो यह जगत् कैसे उत्पन्न होता? तथा जो ईश्वर सब पदार्थों को उत्पन्न करके सब मनुष्यों के लिये नहीं देता तो मनुष्य लोग कैसे जी सकते? इससे सब कार्य्यों का उत्पन्न करने और सब सुखों का देनेवाला ईश्वर ही है, अन्य कोई नहीं, यह बात सब को माननी चाहिये॥३॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तावेवोपदिश्येते।

Anvay:

यदीन्द्रः स्तोतृभ्यो वाजस्य गोमतो मघं मंहते तर्ह्यस्यैताः पूर्व्यो रातय ऊतयो न विदस्यन्ति नैवोपक्षयन्ति॥३॥

Word-Meaning: - (पूर्वीः) पूर्व्यः सनातन्यः। सुपां सुलुगिति पूर्वसवर्णादेशः। (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य सभासेनाध्यक्षस्य वा (रातयः) दानानि (न) निषेधार्थे (वि) क्रियायोगे (दस्यन्ति) उपक्षयन्ति (ऊतयः) रक्षणानि (यदि) आकाङ्क्षार्थे (वाजस्य) वजन्ति प्राप्नुवन्ति सुखानि यस्मिन् व्यवहारे तस्य (गोमतः) प्रशस्ताः पृथिवी गावः पशवो वागादीनीन्द्रियाणि च विद्यन्ते यस्मिन् तस्य (स्तोतृभ्यः) स्तुवन्ति जगदीश्वरं सृष्टिगुणाँश्च ये तेभ्यो धार्मिकेभ्यो विद्वद्भ्यः (मंहते) ददाति। मंहत इति दानकर्मसु पठितम्। (निघं०३.२०) (मघम्) प्रकृष्टं विद्यासुवर्णादिधनम्॥३॥
Connotation: - अत्रापि श्लेषालङ्कारः। यथेश्वरस्य जगति दानरक्षणानि नित्यानि न्याययुक्तानि कर्माणि सन्ति, तथैव मनुष्यैरपि प्रजायां विद्याऽभयदानानि नित्यं कार्य्याणि। यदीश्वरो न स्यात्तर्हीदं जगत्कथमुत्पद्येत, यदीश्वरः सर्वमुत्पाद्य न दद्यात्तर्हि मनुष्याः कथं जीवेयुस्तस्मात् सकलकार्य्योत्पादकः सर्वसुखदातेश्वरोऽस्ति, नेतर इति मन्तव्यम्॥३॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. या जगात ईश्वर व राजा यांचे दान व रक्षण न्याययुक्त (कर्म) असते, तसा इतर माणसांनीही प्रजेमध्ये विद्या व निर्भयता यांचा निरंतर फैलाव केला पाहिजे. जर ईश्वर नसता तर हे जग कसे निर्माण झाले असते? व ईश्वराने सर्व पदार्थ उत्पन्न करून सर्व माणसांना दिले नसते तर माणसे कशी जगली असती? हे सर्व कार्य ईश्वर करतो व सर्वांना सुख देतो, दुसरा कुणी नव्हे! ही गोष्ट सर्वांनी मानली पाहिजे. ॥ ३ ॥