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अ॒रु॒णो मा॑ स॒कृद्वृक॑: प॒था यन्तं॑ द॒दर्श॒ हि। उज्जि॑हीते नि॒चाय्या॒ तष्टे॑व पृष्ट्याम॒यी वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

English Transliteration

aruṇo mā sakṛd vṛkaḥ pathā yantaṁ dadarśa hi | uj jihīte nicāyyā taṣṭeva pṛṣṭyāmayī vittam me asya rodasī ||

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Pad Path

अ॒रु॒णः। मा॒। स॒कृत्। वृकः॑। प॒था। यन्त॑म्। द॒दर्श॑। हि। उत्। जि॒ही॒ते॒। नि॒ऽचाय्य॑। तष्टा॑ऽइव। पृ॒ष्टि॒ऽआ॒म॒यी। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥ १.१०५.१८

Rigveda » Mandal:1» Sukta:105» Mantra:18 | Ashtak:1» Adhyay:7» Varga:23» Mantra:3 | Mandal:1» Anuvak:15» Mantra:18


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - जो (अरुणः) समस्त विद्याओं को प्राप्त होता वा प्रकाशित करता (वृकः) शान्ति आदि गुणयुक्त चन्द्रमा के समान विद्वान् (मा, सकृत्) मुझको एक बार (पथा, यन्तम्) अच्छे मार्ग से चलते हुए को (ददर्श) देखता वा उक्त गुणयुक्त महीना आदि काल विभागों को करनेवाले चन्द्रमा के तुल्य विद्वान् अच्छे मार्ग से चलते हुए को देखता है वह (निचाय्य) यथायोग्य समाधान देकर (पृष्ट्यामयी) पीठ में क्लेशरूप रोगवान् (तष्टेव) शिल्पी विद्वान् जैसे शिल्प व्यवहारों को समझाता वैसे (उज्जिहीते) उत्तमता से समझाता (हि) ही है। शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य जानना चाहिये ॥ १८ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो विद्वान् चन्द्रमा के तुल्य शान्तस्वभाव और सूर्य्य के तुल्य विद्या के प्रकाश करने को स्वीकार करके संसार में समस्त विद्याओं को फैलाता है, वही आप्त अर्थात् अतिउत्तम विद्वान् है ॥ १८ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

Anvay:

योऽरुणो वृको मासकृत् पथा यन्तं ददर्श स निचाय्य पृष्ट्यामयी तष्टे वोज्जिहीते हि। अन्यत्पूर्ववत् ॥ १८ ॥

Word-Meaning: - (अरुणः) य ऋच्छति सर्वा विद्या स आरोचको वा। अत्र ऋधातोरौणादिक उनच् प्रत्ययः। (मा, सकृत्) मामेकवारम्। अथवैकपद्यम्, मासानां चार्द्धमासादीनां च कर्त्ता। अत्र मासकृदित्येकं पदं निरुक्तकारप्रामाण्यादनुमीयते। अथ शाकल्यस्तु (मा, सकृत्) इति पदद्वयमभिजानीते। (वृकः) यथा चन्द्रमाः शान्तगुणस्तथा (पथा) उत्तममार्गेण (यन्तम्) गच्छन्तं प्राप्नुवन्तं वा। इण् धातोः शतृ प्रत्ययः। (ददर्श) पश्यति (हि) खलु (उत्) उत्कृष्टे (जिहीते) विज्ञापयति (निचाय्य) समाधाय। अत्र निशामनार्थस्य चायृ धातोः प्रयोगः। अन्येषामपीति दीर्घश्च। (तष्टेव) यथा तक्षकः शिल्पी शिल्पविद्याव्यवहारान् विज्ञापयति तथा (पृष्ट्यामयी) पृष्टौ पृष्ठ आमयः क्लेशरूपो रोगो विद्यते यस्य सः। अन्यत्पूर्ववत् ॥ १८ ॥अत्र निरुक्तम्। वृकश्चन्द्रमा भवति विवृतज्योतिष्को वा, विकृतज्योतिष्को वा, विक्रान्तज्योतिष्को वा। अरुण आरोचनो मासकृन्मासानां चार्द्धमासानां च कर्त्ता भवति। चन्द्रमा वृकः पथा यन्तं ददर्श नक्षत्रगणमभिजिहीते निचाय्य येन येन योक्ष्यमाणो भवति चन्द्रमाः। तक्ष्णुवन्निव पृष्ठरोगी। जानीतं मेऽस्य द्यावापृथिव्याविति। निरु० ५। २०-२१। ॥ १८ ॥
Connotation: - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यो विद्वान् चन्द्रवच्छान्तस्वभावं सूर्य्यवत् विद्याप्रकाशकरणं स्वीकृत्य विश्वस्मिन् सर्वा विद्याः प्रसारयति स एवाप्तोऽस्ति ॥ १८ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो विद्वान चंद्राप्रमाणे शांत स्वभाव व सूर्याप्रमाणे विद्येचा प्रकाश करण्याचे ठरवितो व संपूर्ण जगात संपूर्ण विद्येचा फैलाव करतो तोच आप्त अर्थात् अति उत्तम विद्वान असतो. ॥ १८ ॥