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यो अश्वा॑नां॒ यो गवां॒ गोप॑तिर्व॒शी य आ॑रि॒तः कर्म॑णिकर्मणि स्थि॒रः। वी॒ळोश्चि॒दिन्द्रो॒ यो असु॑न्वतो व॒धो म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥

English Transliteration

yo aśvānāṁ yo gavāṁ gopatir vaśī ya āritaḥ karmaṇi-karmaṇi sthiraḥ | vīḻoś cid indro yo asunvato vadho marutvantaṁ sakhyāya havāmahe ||

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Pad Path

यः। अश्वा॑नाम्। यः। गवा॑म्। गोऽप॑तिः। व॒शी। यः। आ॒रि॒तः। कर्म॑णिऽकर्मणि। स्थि॒रः। वी॒ळोः। चि॒त्। इन्द्रः॑। यः। असु॑न्वतः। व॒धः। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ १.१०१.४

Rigveda » Mandal:1» Sukta:101» Mantra:4 | Ashtak:1» Adhyay:7» Varga:12» Mantra:4 | Mandal:1» Anuvak:15» Mantra:4


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अब सभाध्यक्ष कैसा होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - (यः) जो (इन्द्रः) दुष्टों का विनाश करनेवाला सभा आदि का अधिपति (अश्वानाम्) घोड़ों का अध्यक्ष (यः) जो (गवाम्) गौ आदि पशु वा पृथिवी आदि की रक्षा करनेवाला (यः) जो (गोपतिः) अपनी इन्द्रियों का स्वामी अर्थात् जितेन्द्रिय होकर अपनी इच्छा के अनुकूल उन इन्द्रियों को चलाने (वशी) और मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार को यथायोग्य वश में रखनेवाला (आरितः) सभा से आज्ञा को प्राप्त हुआ (कर्मणिकर्मणि) कर्म-कर्म में (स्थिरः) निश्चित (यः) जो (असुन्वतः) यज्ञकर्त्ताओं से विरोध करनेवाले (वीळोः) बलवान् को (वधः चित्) वज्र के तुल्य मारनेवाला हो, उस (मरुत्वन्तम्) अच्छे प्रशंसित पढ़ानेवालों को राखनेहारे सभापति को (सख्याय) मित्रता वा मित्र के काम के लिये (हवामहे) हम स्वीकार करते हैं ॥ ४ ॥
Connotation: - यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो सबकी पालना करनेवाला जितेन्द्रिय, शान्त और जिस-जिस कर्म में सभा की आज्ञा को पावे उसी-उसी कर्म में स्थिरबुद्धि से प्रवर्त्तमान बलवान् दुष्ट शत्रुओं को जीतनेवाला हो, उसके साथ निरन्तर मित्रता की संभावना करके सुखों को सदा भोगें ॥ ४ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

अथ सभाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ।

Anvay:

य इन्द्रः सभाद्यध्यक्षोऽश्वानामधिष्ठाता यो गवां रक्षकः, यो गोपतिर्वश्यारितः सन् कर्मणिकर्मणि स्थितो भवेद्योऽसुन्वतो वीळोर्वधश्चिद्धन्ता स्यात् तं मरुत्वन्तं सख्याय वयं हवामहे ॥ ४ ॥

Word-Meaning: - (यः) सभाद्यध्यक्षः (अश्वानाम्) तुरङ्गानाम् (यः) (गवाम्) गवां पृथिव्यादीनां वा (गोपतिः) गवां स्वेषामिन्द्रियाणां स्वामी (वशी) वशं कर्त्तुं शीलः (यः) (आरितः) सभया विज्ञापितः (कर्मणिकर्मणि) क्रियाणां क्रियायाम् (स्थिरः) निश्चलप्रवृत्तिः (वीळोः) बलवतः (चित्) इव (इन्द्रः) दुष्टानां विदारयिता (यः) (असुन्वतः) यज्ञकर्त्तृविरोधिनः (वधः) वज्र इव। वध इति वज्रनामसु पठितम्। निघं० २। २०। (मरुत्वन्तं०) इति पूर्ववत् ॥ ४ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यः सर्वपालको जितेन्द्रियः शान्तो यत्र यत्र सभयाऽज्ञापितस्तस्मिँस्तस्मिन्नेव कर्मणि स्थिरबुद्ध्या प्रवर्त्तमानो दुष्टानां बलवतां शत्रूणां विजयकर्त्ता वर्त्तते तेन सह सततं मित्रतां संभाव्य सुखानि सदा भोक्तव्यानि ॥ ४ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - येथे वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो सर्वांचे पालन करणारा, जितेंद्रिय, शांत व सभेच्या आज्ञेप्रमाणे कर्मात स्थिरबुद्धीने स्थित असणारा, बलवान, दुष्ट शत्रूंना जिंकणारा असेल तर त्याच्याबरोबर माणसांनी निरंतर मैत्री करून सदैव सुख भोगावे. ॥ ४ ॥