Go To Mantra

म॒रुत्स्तो॑त्रस्य वृ॒जन॑स्य गो॒पा व॒यमिन्द्रे॑ण सनुयाम॒ वाज॑म्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

English Transliteration

marutstotrasya vṛjanasya gopā vayam indreṇa sanuyāma vājam | tan no mitro varuṇo māmahantām aditiḥ sindhuḥ pṛthivī uta dyauḥ ||

Mantra Audio
Pad Path

म॒रुत्ऽस्तो॑त्रस्य। वृ॒जन॑स्य। गो॒पाः। व॒यम्। इन्द्रे॑ण। स॒नु॒या॒म॒। वाज॑म्। तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। म॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः ॥ १.१०१.११

Rigveda » Mandal:1» Sukta:101» Mantra:11 | Ashtak:1» Adhyay:7» Varga:13» Mantra:5 | Mandal:1» Anuvak:15» Mantra:11


Reads times

SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - जो (मरुत्स्तोत्रस्य) पवन आदि के वेगादि गुणों से प्रशंसा को प्राप्त (वृजनस्य) और दुःखवर्जित अर्थात् जिसमें दुःख नहीं होता उस व्यवहार का (गोपाः) रखनेवाला सेनाधिपति है, उस (इन्द्रेण) ऐश्वर्य के देनेवाले सेनापति के साथ वर्त्तमान (वयम्) हम लोग जिस कारण (वाजम्) संग्राम का (सनुयाम) सेवन करें (तत्) इस कारण (मित्रः) मित्र (वरुणः) उत्तम गुणयुक्त जन (अदितिः) समस्त विद्वान् मण्डली (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) सूर्यलोक (नः) हम लोगों के (मामहन्ताम्) सत्कार करने के हेतु हों ॥ ११ ॥
Connotation: - निश्चय है कि संग्राम में किसी पूर्ण बली सेनाधिपति के विना शत्रुओं का पराजय नहीं हो सकता और न कोई सेनाधिपति अच्छी शिक्षा की हुई पूर्ण बल, अङ्ग और उपाङ्ग सहित आनन्दित और पुष्ट सेना के विना शत्रुओं के जीतने वा राज्य की पालना करने को समर्थ हो सकता है। न उक्त व्यवहारों के विना मित्र आदि सुख करने के योग्य होते हैं, इससे उक्त समस्त व्यवहार सब मनुष्यों को यथावत् मानना चाहिये ॥ ११ ॥इस सूक्त में ईश्वर, सभा, सेना और शाला आदि के अधिपतियों के गुणों का वर्णन है। इससे इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह १०१ एकसौ एकवाँ सूक्त और १३ तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
Reads times

SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

Anvay:

यो मरुत्स्तोत्रस्य वृजनस्य गोपा सेनाधिपतिरस्ति तेनेन्द्रेणैश्वर्यप्रदेन सह वर्त्तमाना वयं यतो वाजं सनुयाम तन्मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्नोऽस्मान्मामहन्तां सत्कारहेतवः स्युः ॥ ११ ॥

Word-Meaning: - (मरुत्स्तोत्रस्य) मरुतां वेगादिगुणैः स्तुतस्य (वृजनस्य) दुःखवर्जितस्य व्यवहारस्य (गोपाः) रक्षकः (वयम्) (इन्द्रेण) ऐश्वर्य्यप्रदेन सेनापतिना सह वर्त्तमानाः (सनुयाम) संभजेमहि। अत्र विकरणव्यत्ययः। (वाजम्) संग्रामम् (तत्) तस्मात् (नः) अस्मान् (मित्रो वरु०) इति पूर्ववत् ॥ ११ ॥
Connotation: - न खलु संग्रामे केषांचित् पूर्णबलेन सेनाधिपतिना विना शत्रुपराजयो भवितुं शक्यः। नैव किल कश्चित् सेनाधिपतिः सुशिक्षितया पूर्णबलया साङ्गोपाङ्गया हृष्टपुष्टया सेनया विना शत्रून् विजेतुं राज्यं पालयितुं च शक्नोति। नैतावदन्तरेण मित्रादयः सुखकारका भवितुं योग्यास्तस्मादेतत्सर्वं सर्वैर्मनुष्यैर्यथावन्मन्तव्यमिति ॥ ११ ॥ अत्रेश्वरसभासेनाशालाद्यध्यक्षाणां गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोद्ध्यव्यम् ॥इत्येकाधिकशततमं सूक्तं १०१ त्रयोदशो १३ वर्गश्च समाप्तः ॥
Reads times

MATA SAVITA JOSHI

N/A

Word-Meaning: - N/A
Connotation: - युद्धात निश्चितपणे एखाद्या पूर्ण बलवान सेनाधिपतीशिवाय शत्रूंचा पराभव होऊ शकत नाही व एखादा सेनाधिपती चांगले शिक्षण व बल अंग-उपांगांसह आनंदी व पुष्ट सेना याशिवाय शत्रूंना जिंकण्यासाठी किंवा राज्याचे पालन करण्यास समर्थ बनू शकत नाही. या वरील व्यवहाराशिवाय मित्र इत्यादीचे सुख मिळू शकत नाही. यामुळे वरील संपूर्ण व्यवहार सर्व माणसांनी यथायोग्यरीत्या मानले पाहिजेत. ॥ ११ ॥