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तस्य॒ वज्र॑: क्रन्दति॒ स्मत्स्व॒र्षा दि॒वो न त्वे॒षो र॒वथ॒: शिमी॑वान्। तं स॑चन्ते स॒नय॒स्तं धना॑नि म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥

English Transliteration

tasya vajraḥ krandati smat svarṣā divo na tveṣo ravathaḥ śimīvān | taṁ sacante sanayas taṁ dhanāni marutvān no bhavatv indra ūtī ||

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Pad Path

तस्य॑। वज्रः॑। क्र॒न्द॒ति॒। स्मत्। स्वः॒ऽसाः। दि॒वः। न। त्वे॒षः। र॒वथः॑। शिमी॑ऽवान्। तम्। स॒च॒न्ते॒। स॒नयः॑। तम्। धना॑नि। म॒रुत्वा॑न्। नः॒। भ॒व॒तु॒। इन्द्रः॑। ऊ॒ती ॥ १.१००.१३

Rigveda » Mandal:1» Sukta:100» Mantra:13 | Ashtak:1» Adhyay:7» Varga:10» Mantra:3 | Mandal:1» Anuvak:15» Mantra:13


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

Word-Meaning: - जिस सभाद्यध्यक्ष का (स्मत्) काम के वर्त्ताव की अनुकूलता का (स्वर्षाः) सुख से सेवन और (रवथः) भारी कोलाहल शब्द करनेवाला (शिमीवान्) जिससे प्रशंसित काम होते हैं वह (वज्रः) शस्त्र और अस्त्रों का समूह (क्रन्दति) अच्छे जनों को बुलाता और दुष्टों को रुलाता है (तस्य) उसके (दिवः) सूर्य्य के (त्वेषः) उजेले के (न) समान गुण, कर्म और स्वभाव प्रकाशित होते हैं, जो ऐसा है (तम्) उसको (सनयः) उत्तम सेवा अर्थात् सज्जनों के किये हुए उत्साह (सचन्ते) सेवन करते और (तम्) उसको (धनानि) समस्त धन सेवन करते हैं, इस प्रकार (मरुत्वान्) जो सभाध्यक्ष अपनी सेना में उत्तम वीरों को रखनेवाला (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यवान् तथा (नः) हम लोगों के (ऊती) रक्षादि व्यवहारों के लिये यत्न करता है, वह हम लोगों का राजा (भवतु) होवे ॥ १३ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सभासद्, भृत्य, सेना के पुरुष और प्रजाजनों को चाहिये कि ऐसे उत्तम कामों का सेवन करें कि जिनसे विद्या, न्याय, धर्म वा पुरुषार्थ बढ़े हुए सूर्य के समान प्रकाशित हों, क्योंकि ऐसे कामों के विना उत्तम सुखों के सेवन, धन और रक्षा हो नहीं सकती, इससे ऐसे काम सभाध्यक्ष आदि को करने योग्य हैं ॥ १३ ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।

Anvay:

यस्य सभाद्यध्यक्षस्य स्मत्स्वर्षा रवथः शिमीवान्वज्रः क्रन्दति तस्य दिवस्त्वेषो न सूर्य्यस्य प्रकाश इव गुणकर्मस्वभावाः प्रकाशन्ते। य एवं भूतस्तं सनयः सचन्ते तं धनानि चेत्थं यो मरुत्वानिन्द्रो न ऊती प्रयतते सोऽस्माकं राजा भवतु ॥ १३ ॥

Word-Meaning: - (तस्य) (वज्रः) शस्त्रास्त्रसमूहः (क्रन्दति) श्रेष्ठानाह्वयति दुष्टान् रोदयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (स्मत्) तत्कर्मानुष्ठानोक्तम् (स्वर्षाः) स्वः सुखेन सनोति सः। अत्र स्वःपूर्वात् सन् धातोः कृतो बहुलमिति करणे विच्। (दिवः) प्रकाशस्य (न) इव (त्वेषः) यस्त्वेषति प्रदीप्तो भवति सः (रवथः) महाशब्दकारी (शिमीवान्) प्रशस्तानि कर्माणि भवन्ति यस्य सकाशात्। अत्र छन्दसीर इति मतुपो मकारस्य वत्वम्। शिमीति कर्मनाम०। निघं० २। १। (तम्) (सचन्ते) सेवन्ते (सनयः) उत्तमाः सेवाः (तम्) (धनानि) (मरुत्वान्नः) इति पूर्ववत् ॥ १३ ॥
Connotation: - अत्रोपमालङ्कारः। सभासद्भृत्यसेनाप्रजाभिरीदृशान्युत्तमानि कर्माणि सेवनीयानि येभ्यो विद्यान्यायधर्मपुरुषार्था वर्धमानाः सूर्यवत्प्रकाशिताः स्युः। न हीदृशैः कर्मभिर्विनोत्तमानि सुखसेवनानि धनानि रक्षाश्च भवितुं शक्याः। तस्मादेवंभूतानि कर्माणि सभाद्यध्यक्षैः सेवनीयानि ॥ १३ ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात उपमालंकार आहे. सभासद, भृत्य (सेवक) सेनेतील पुरुष व प्रजा यांनी असे उत्तम काम करावे की ज्यामुळे विद्या, न्याय, धर्म, पुरुषार्थ प्रखर सूर्याप्रमाणे प्रकाशित व्हावेत. अशा कर्माशिवाय उत्तम सुखाचे ग्रहण, धनप्राप्ती व रक्षण होऊ शकत नाही. अशी कामे सभाध्यक्षांनी करण्यायोग्य असतात. ॥ १३ ॥