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यत्सानोः॒ सानु॒मारु॑ह॒द्भूर्यस्प॑ष्ट॒ कर्त्व॑म्। तदिन्द्रो॒ अर्थं॑ चेतति यू॒थेन॑ वृ॒ष्णिरे॑जति॥

English Transliteration

yat sānoḥ sānum āruhad bhūry aspaṣṭa kartvam | tad indro arthaṁ cetati yūthena vṛṣṇir ejati ||

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Pad Path

यत्। सानोः॑। सानु॑म्। आ। अरु॑हत्। भूरि॑। अस्प॑ष्ट। कर्त्व॑म्। तत्। इन्द्रः॑। अर्थ॑म्। चे॒त॒ति॒। यू॒थेन॑। वृ॒ष्णिः। ए॒ज॒ति॒॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:10» Mantra:2 | Ashtak:1» Adhyay:1» Varga:19» Mantra:2 | Mandal:1» Anuvak:3» Mantra:2


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर भी ईश्वर को कैसे जानें, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-

Word-Meaning: - जैसे (यूथेन) वायुगण अथवा सुख के साधन हेतु पदार्थों के साथ (वृष्णिः) वर्षा करनेवाला सूर्य्य अपने किरणसमूह से प्रकाश करके (सानोः) पर्वत के एक शिखर से (सानुम्) दूसरे शिखर को (भूरि) बहुधा (आरुहत्) प्राप्त होता (अस्पष्ट) स्पर्श करता (एजति) क्रम से अपनी कक्षा में घूमता और घुमाता है, वैसे ही जो मनुष्य क्रम से एक कर्म को सिद्ध करके दूसरे को (कर्त्त्वम्) करने को (भूरि) बहुधा (आरुहत्) आरम्भ तथा (अस्पष्ट) स्पर्श करता हुआ (एजति) प्राप्त होता है, उस पुरुष के लिये (इन्द्रः) सर्वज्ञ ईश्वर उन कर्मों के करने को (सानोः) अनुक्रम से (अर्थम्) प्रयोजन के विभाग के साथ (भूरि) अच्छी प्रकार (चेतति) प्रकाश करता है॥२॥
Connotation: - इस मन्त्र में भी इव शब्द की अनुवृत्ति से उपमालङ्कार समझना चाहिये। जैसे सूर्य्य अपने सम्मुख के पदार्थों को वायु के साथ वारंवार क्रम से अच्छी प्रकार आक्रमण, आकर्षण और प्रकाश करके सब पृथिव्यादि लोकों को घुमाता है, वैसे ही जो मनुष्य विद्या से करने योग्य अनेक कर्मों को सिद्ध करने के लिये प्रवृत्त होता है, वही अनेक क्रियाओं से सब कार्य्यों के करने को समर्थ हो सकता तथा ईश्वर की सृष्टि में अनेक सुखों को प्राप्त होता, और उसी मनुष्य को ईश्वर भी अपनी कृपादृष्टि से देखता है, आलसी को नहीं॥२॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनः स कथं वेदितव्य इत्युपदिश्यते।

Anvay:

यूथेन वायुगणेन सह वृष्णिः सूर्य्यकिरणसमूहः सानोः सानुं भूर्यारुहत् स्पशते राजति चलति चालयति वा, यो मनुष्यो यत्सानोः सानुं कर्मणः कर्मत्वं भूर्यारुहत्, अस्पष्टैजति तस्मै इन्द्रः परमात्मा तत्तस्मात् सानोः सानुमर्थं भूरि चेतति ज्ञापयति॥२॥

Word-Meaning: - (यत्) यस्मात् (सानोः) पर्वतस्य शिखरात् संविभागात्कर्मणः सिद्धेर्वा। दृसनिजनि० (उणा०१.३) अनेन सनेर्ञुण्प्रत्ययः। अथवा ‘षोऽन्तकर्मणि’ इत्यस्माद् बाहुलकान्नुः। (सानुम्) यथोक्तं त्रिविधमर्थम् (आ) धात्वर्थे (अरुहत्) रोहति। अत्र लडर्थे लङ्। विकरणव्यत्ययेन शपः स्थाने शः। (भूरि) बहु। भूरीति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) अदिसदिभू० (उणा०४.६६) अनेन भूधातोः क्तिन् प्रत्ययः। (अस्पष्ट) स्पशते। अत्र लडर्थे लङ्, बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (कर्त्त्वम्) कर्त्तुं योग्यं कार्य्यम्। अत्र करोतेस्त्वन् प्रत्ययः। (तत्) तस्मात् (इन्द्रः) सर्वज्ञ ईश्वरः (अर्थम्) अर्तुं ज्ञातुं प्राप्तुं गुणं द्रव्यं वा। उषिकुषिगार्त्तिभ्यः स्थन्। (उणा०२.४) अनेनार्त्तेः स्थन् प्रत्ययः। (चेतति) संज्ञापयति प्रकाशयति वा। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (यूथेन) सुखप्रापकपदार्थसमूहेनाथवा वायुगणेन सह। तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः। (उणा०२.१२) अनेन यूथशब्दो निपातितः। (वृष्णिः) वर्षति सुखानि वर्षयति वा। सृवृषिभ्यां कित्। (उणा०४.५१) अनेन वृषधातोर्निः प्रत्ययः स च कित्। (एजति) कम्पते॥२॥
Connotation: - इवशब्दानुवृत्त्याऽत्राप्युपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यः सम्मुखस्थान् वायुना सह पुनः पुनः क्रमेणात्यन्तमाक्रम्याकर्ष्य प्रकाश्य भ्रामयति, तथैव यो मनुष्यो विद्यया कर्त्तव्यानि बहूनि कर्माणि निरन्तरं सम्पादयितुं प्रवर्त्तते, स एव साधनसमूहेन सर्वाणि कार्य्याणि साधितुं शक्नोति। अस्यामीश्वरसृष्टावेवंभूतो मनुष्यः सुखानि प्राप्नोति। ईश्वरोऽपि तमेवानुगृह्णति॥२॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रातही ‘इव’ शब्दाच्या अनुवृत्तीने उपमालंकार समजला पाहिजे. जसा सूर्य आपल्यासमोर असलेल्या पदार्थांना वायूच्या संगतीने चांगल्या प्रकारे आक्रमण, आकर्षण व प्रकाश यांच्याद्वारे पृथ्वीगोलाला फिरवितो, तसेच जो माणूस विद्यायुक्त बनून अनेक कर्म करण्यास प्रवृत्त होतो, तोच अनेक साधनांनी सर्व कार्य करण्यास समर्थ होऊ शकतो व ईश्वराच्या सृष्टीत अनेक प्रकारचे सुख प्राप्त करू शकतो व त्याच माणसावर ईश्वरही आपली कृपादृष्टी वळवितो, आळशी व्यक्तीवर नाही. ॥ २ ॥