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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI
ब्रह्मविद्या के लिये उपदेश।
Word-Meaning: - (यत्) जब (देवाः) विद्वानों ने (पुरुषेण) अपने अग्रगामी आत्मा के साथ (हविषा) देने और लेने योग्य व्यवहार से (यज्ञम्) पूजनीय ब्रह्म को (अतन्वत) फैलाया। वह ब्रह्म (नु) अव (तस्मात्) उस [आत्मा] से (ओजीयः) अधिक बलवान् (अस्ति=आसीत्) हुआ, (यत्) जिस [ब्रह्म] की उन्होंने (विहव्येन) विशेष देने योग्य व्यवहार से (ईजिरे) पूजा था ॥४॥
Connotation: - विद्वान् योगी महात्माओं ने यह साक्षात् किया है कि इस जीवात्मा से अधिक ओजस्वी शक्तिविशेष परमेश्वर सब ब्रह्माण्ड को चला रहा है ॥४॥ इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध ऋग्वेद में है-म० १०।६६।७। और-यजु० ३१।१४।
Footnote: ४−(यत्) यदा (पुरुषेण) अ० १।१६।४। पुर अग्रगतौ-कुषन्। अग्रगामिना स्वात्मना (हविषा) दातव्येन ग्राह्येण च कर्मणा (देवाः) विद्वांसः (अतन्वत) विस्तारितवन्तः (अस्ति) आसीत् तद्ब्रह्म (नु) अवधारणे। इदानीम् (तस्मात्) पुरुषात् (ओजीयः) ओजस्वी-ईयसुन्, विनो लुक्। बलवत्तरम् (यत्) ब्रह्म (विहव्येन) विविधं दातव्येन व्यवहारेण (ईजिरे) यजेर्लिट्। पूजितवन्तः ॥