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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI
आत्मिक दोष नाश करने का उपदेश।
Word-Meaning: - (इमम्) इस [सर्वव्यापी] (यवम्) संयोग-वियोग करनेवाले परमेश्वर को (अष्ठायोगैः) आठ प्रकार के [यम नियम आदि] योगों से और (षड्योगेभिः) छह प्रकार के [पढ़ना-पढ़ाना आदि ब्राह्मणों के कर्मों से (अचर्कृषुः) उन [महात्माओं] ने कर्षण अर्थात् परिश्रम से प्राप्त किया है। (तेन) उसी [कर्म] से (ते) तेरे (तन्वः) शरीर के (रपः) पाप को (अपाचीनम्) विपरीत गति करके (अप व्यये) मैं हटाता हूँ ॥१॥
Connotation: - जिस प्रकार से महर्षियों ने योगसाधन और ब्राह्मण कर्म से ईश्वर को प्राप्त किया है, इसी प्रकार विद्वान् मनुष्य ईश्वरप्राप्ति से आत्मदोष त्यागकर आनन्दित होवें ॥१॥ आठ प्रकार के योगाङ्ग यह हैं−यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि ॥ योगदर्शने २।२९। अर्थात् १−यम, २−नियम, ३−आसन, ४−प्राणायाम, ५−प्रत्याहार, अर्थात् जितेन्द्रियता, ६−धारणा, ७−ध्यान और ८−समाधि, यह आठ योग के अङ्ग हैं ॥ ब्राह्मणों के छह कर्म यह हैं−अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा। दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥ मनुः १।८८। १−पढ़ना, २−पढ़ाना, ३−यज्ञ करना, ४−यज्ञ कराना, ५−दान देना और ६−दान लेना यह छह कर्म [प्रभु ने] ब्राह्मणों के बताये हैं ॥
Footnote: १−(इमम्) दृश्यमानं सर्वव्यापिनम् (यवम्) यु मिश्रणामिश्रणयोः−अप्। यवः, मिश्रणामिश्रणकर्ता इति दयानन्दभाष्ये यजुः० ५।२६। संयोजकवियोजकं परमात्मानम् (अष्टायोगैः) यमनियमाद्यष्टयोगाङ्गैः−योगदर्शने २।२९। (षड्योगेभिः) अध्यापनाध्ययनादिब्राह्मणषट्कर्मभिः−मनुस्मृति १।८८। (अचर्कृषुः) कृष विलेखने स्वार्थे ण्यन्ताल्लुङि चङि रूपम्। कर्षणेन श्रमेण प्राप्तवन्तः (तेन) कर्षणकर्मणा (ते) तव (तन्वः) शरीरस्य (रपः) अ० ४।१३।२। दोषम् (अपाचीनम्) विभाषाञ्चेरदिक् स्त्रियाम्। पा० ५।४।८। इति अपाच्−स्वार्थे ख, खस्य ईनादेशः। अपगतम्। अपाङ्मुखम् (अप व्यये) व्यय गतौ विषसमुत्सर्गे च। अपगमयामि ॥