Devata: ब्रह्मणस्पतिः
Rishi: च॒क॒र्थ॒ । अ॒र॒सम् । वि॒षम् ॥१००.३॥
Chhanda: अनुष्टुप्
Swara: बलवर्धक सूक्त
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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI
राजा के धर्म का उपदेश।
Word-Meaning: - [हे राजन् !] (आ) भले प्रकार (वृषायस्व) इन्द्र, बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष के समान आचरण कर, (श्वसिहि) जीता रह, (वर्धस्व) बढ़ती कर (च) और [हमें] (प्रथयस्य) फैला। (यथाङ्गम्) प्रत्येक अङ्ग में [तेरा] (शेपः) सामर्थ्य (वर्धताम्) बढ़े, (तेन) इसलिये (योषितम्) सेवनीय नीति को (इत्) ही (जहि) तू प्राप्त हो ॥१॥
Connotation: - राजा पुरुषार्थपूर्वक अपनी और प्रजा की उन्नति में सदा तत्पर रहे ॥१॥ राज्य की बढ़ती के चार अङ्ग वा उपाय यह हैं [सामदाने भेददण्डावित्युपायचतुष्टम्−अमर १८।२०] १−साम, प्रियवचन, २−दान, धन देना, ३−भेद, शत्रुओं में फूट कर देना, ४−दण्ड ॥
Footnote: १−(आ) समन्तात् (वृषायस्य) कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा० ३।१।११। इति वृषन्−क्यङ्। वृषा इन्द्र इवाचर (श्वसिहि) श्वस प्राणने। प्राणिहि। बलवान् भव (वर्धस्व) बुद्धिं कुरु (प्रथयस्य) विस्तारय प्रजागणान् (च) (यथाङ्गम्) अङ्गान्यनतिक्रम्य। सर्वाङ्गम् (वर्धताम्) वृद्धिं प्राप्नोतु (शेपः) अ० ४।३७।७। शेते वर्तते शरीरे तत् सामर्थ्यम् (तेन) कारणेन (योषितम्) अ० १।१७।१। युष सेवने−इति। सेव्यां नीतिम् (इत्) एव (जहि) हन गतौ। गच्छ ॥