Word-Meaning: - (कवयः) ऋषि लोगों ने (सप्त) सात (मर्यादाः) मर्यादायें [कुमर्यादायें] (ततक्षुः) ठहरायी हैं, (तासाम्) उनमें से (एकाम्) एक पर (इत्) भी (अभि गात्) चलता हुआ पुरुष (अंहुरः) पापवान् [होता है] [क्योंकि] (आयोः) मार्ग [सुमार्ग] का (स्कम्भः) थाँभनेवाला पुरुष (ह) ही (पथाम्) उन मार्गों (कुमार्गों) के (विसर्गे) त्याग पर (उपमस्य) समीपवर्ती वा सब के निर्माता परमेश्वर के (नीडे) धाम के भीतर (धरुणेषु) धारण सामर्थ्यों में (तस्थौ) स्थित हुआ है ॥६॥
Connotation: - मनुष्य निषिद्ध कर्मों से पापी होकर दुःख, और विहित कर्मों के करने से सुकर्मी होकर परमेश्वर की व्यवस्था से सुख पाते हैं ॥६॥ इस मन्त्र के पूर्वार्ध की व्याख्या भगवान् यास्क ने−निरु० ६।२७। में इस प्रकार की है−[सप्तैव] सात ही [मर्यादाः] मर्यादायें [कवयः] ऋषियों ने [चक्रुः] बनायी हैं, [तासाम्] उनमें से [एकामपि] एकपर भी [अभि गात्] चलता हुआ [अंहस्वान् भवति] पापी होता है। [स्तेयम्] चोरी (तल्पारोहणम्) व्यभिचार, [ब्रह्महत्याम्] ब्रह्महत्या, [भ्रूणहत्याम्] गर्भहत्या [सुरापानम्] सुरापान, [दुष्कृतस्य कर्मणः पुनः पुनः सेवाम्] दुष्ट कर्मों का बार-बार सेवन, और [पातकेऽनुतोद्यम्] पातक लगाने में झूँठ बोलना [इति] यह सात मर्यादा बताई हैं ॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है−म० १० सू० ५। म० ६ ॥