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सु॑दे॒वो अ॑सि वरुण॒ यस्य॑ ते स॒प्त सिन्ध॑वः। अ॑नु॒क्षर॑न्ति का॒कुदं॑ सू॒र्यं सुषि॒रामि॑व ॥

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सुऽदेव: । असि । वरुण । यस्य । ते । सप्त । सिन्धव: ॥ अनुऽक्षरन्ति । काकुदम् । सूर्म्यम्‌ । ससुविराम्ऽइव ॥९२.९॥

Atharvaveda » Kand:20» Sukta:92» Paryayah:0» Mantra:9


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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

Word-Meaning: - (वरुण) हे श्रेष्ठ परमात्मन् ! तू (सुदेवः) बड़ा देव [अति प्रकाशमान वा दानी] (असि) है, (यस्य ते) जिस तेरे (काकुदम्) तालू को (सप्त) सात (सिन्धवः) बहते हुए समुद्र [अर्थात् भूर्, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्य, इन सात अवस्थाओं वाले सब लोक] (अनुक्षरन्ति) निरन्तर सींचते हैं, (इव) जैसे (सूर्म्यम्) बड़े वेगवाले (सुषिराम्) झरने को [जल सींचते हैं] ॥९॥
Connotation: - इस मन्त्र के लिये-अ० २०।३४।३ और निरुक्त ।२७। भी देखो। जिस परमात्मा की आज्ञा में यह सब बड़े-छोटे लोक इस प्रकार झुकते हैं, जैसे जल दूर-दूर से एकत्र होकर स्रोतों में झुककर गिरते हैं, हे मनुष्यो ! तुम अभिमान छोड़कर उसी जगदीश्वर के समाने झुको ॥९॥
Footnote: ९−(सुदेवः) कल्याणदेवः। अतिप्रकाशमानः। महाधनी (असि) (वरुण) हे श्रेष्ठ परमात्मन् (यस्य) (ते) तव (सप्त) सप्तसंख्याकाः (सिन्धवः) स्यन्दमानाः समुद्राः। भूर्भुवराद्यवस्थाविशेषयुक्ताः सर्वे लोकाः (अनुक्षरन्ति) निरन्तरं सिञ्चन्ति (काकुदम्) तालु-निरु० ।२६। (सूर्म्यम्) कल्याणोर्मिम्। सुवेगवतीम् (सुषिराम्) इषिमदिमुदि०। उ० १।१। शुष शोषणे-किरच्, टाप्, शस्य सः। जलनिःसरणच्छिद्रम्। स्रोतः (इव) यथा ॥