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श्राय॑न्त इव॒ सूर्यं॒ विश्वेदिन्द्र॑स्य भक्षत। वसू॑नि जा॒ते जन॑मान॒ ओज॑सा॒ प्रति॑ भा॒गं न दी॑धिम ॥

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श्रायन्त:ऽइव । सूर्यम् । विश्वा । इत् । इन्द्रस्य । भक्षत ॥ वसूनि । जाते । जनमाने । ओजसा । प्रत‍ि । भागम् । न । दीधिम ॥५८.१॥

Atharvaveda » Kand:20» Sukta:58» Paryayah:0» Mantra:1


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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

ईश्वर विषय का उपदेश।

Word-Meaning: - [हे मनुष्यो !] (सूर्यम्) सूर्य [रवि] का (श्रायन्तः इव) आश्रय करते हुए [किरणों] के समान (इन्द्रस्य) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवान् परमात्मा] के (ओजसा) सामर्थ्य से (विश्वा) सब (इत्) ही (वसूनि) वस्तुओं को (भक्षत) भोगो, [उनको] (जाते) उत्पन्न हुए और (जनमाने) उत्पन्न होनेवाले जगत् में (भागम् न) अपने भाग के समान (प्रति) प्रत्यक्ष रूप से (दीधिम) हम प्रकाशित करें ॥१॥
Connotation: - जैसे किरणें सूर्य के आश्रय से रहती हैं, वैसे ही परमात्मा का आश्रय लेकर संसार के पदार्थों से उपकार लेते हुए हम आगे होनेवालों के लिये पिता के धन के समान अपना कर्म छोड़ जावें ॥१॥
Footnote: मन्त्र १, २ ऋग्वेद में हैं-८।९९ [सायणभाष्य ८८]। ३, ४ सामवेद-उ० ।२।१४, म० १-पू० ३।८। तथा यजुर्वेद-३३।४१ ॥ १−(श्रायन्तः) श्रिञ् सेवायाम्-शतृ। गुणे प्राप्ते छान्दसी वृद्धिः। श्रयन्तः। आश्रयन्तः किरणाः (इव) यथा (सूर्यम्) रविमण्डलम् (विश्वा) सर्वाणि (इत्) इव (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतः परमात्मनः (भक्षत) भक्ष अदने-लोट्। भक्षयत। सेवध्वम् (वसूनि) वस्तूनि (जाते) उत्पन्ने (जनमाने) छान्दसं रूपम्। जनिष्यमाणे। उत्पत्स्यमाने जगति (ओजसा) सामर्थ्येन (प्रति) प्रत्यक्षेण (भागम्) सेवनीयमशंम् (न) इव (दीधिम) दीधीङ् दीप्तिदेवनयोः। छान्दसं परस्मैपदम्, अन्तर्गतण्यर्थः। प्रकाशयेम ॥