मा॒दय॑स्व सु॒ते सचा॒ शव॑से शूर॒ राध॑से। वि॒द्मा हि त्वा॑ पुरू॒वसु॒मुप॒ कामा॑न्त्ससृ॒ज्महेऽथा॑ नोऽवि॒ता भ॑व ॥
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मादयस्व । सुते । सचा । शवसे । शूर । राधसे ॥ विद्म । हि । त्वा । पुरुऽवसुम् । उप । कामान् । ससृज्महे । अथ । न: । अविता । भव ॥५६.५॥
Atharvaveda » Kand:20» Sukta:56» Paryayah:0» Mantra:5
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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI
सभापति के लक्षण का उपदेश।
Word-Meaning: - (शूर) हे शूर ! (सुते) उत्पन्न जगत् में (सचा) नित्य मेल के साथ (शवसे) बल के लिये और (राधसे) धन के लिये (मादयस्व) आनन्द दे। (त्वा) तुझको (हि) निश्चय करके (पुरुवसुम्) बहुतों में श्रेष्ठ (विद्म) हम जानते हैं, और (कामान्) मनोरथों को (उप) समीप से (ससृज्महे) हम सिद्ध करते हैं, (अथ) इसलिये तू (नः) हमारा (अविता) रक्षक (भव) हो ॥॥
Connotation: - बल और धन की वृद्धि के लिये शूर सेनापति के आश्रय से मनोरथ सिद्ध करके रक्षा करे ॥॥
Footnote: −(मादयस्व) आनन्दय (सुते) उत्पन्ने जगति (सचा) समवायेन। नित्यसम्बन्धेन (शवसे) बलाय (शूर) हे शत्रुनिवारक (राधसे) धनाय (विद्म) जानीमः (हि) अवधारणे (त्वा) त्वाम् (पुरुवसुम्) बहुषु श्रेष्ठम् (उप) समीपे (कामान्) मनोरथान् (ससृज्महे) सृज विसर्गे, विकरणस्य श्लुः। निष्पादयामः। साधयामः (अथ) अनन्तरम् (नः) अस्माकम् (अविता) अवतेस्तृच्। रक्षकः (भव) ॥