Reads times
PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI
परमेश्वर की महिमा का उपदेश।
Word-Meaning: - (अतसीनाम्) सदा चलती हुई [सृष्टियों] के (तुरः) वेग देनेवाले [परमात्मा] के (नव्यः) अधिक नवीन कर्म को (मर्त्यः) मनुष्य (कत्) कैसे (गृणीत) बता सके ? (नु) क्या (अस्य) उसकी (महिमानम्) महिमा और (इन्द्रियम्) इन्द्रपन [परम ऐश्वर्य] को (गृणन्तः) वर्णन करते हुए पुरुषों ने (स्वः) आनन्द (नहि) नहीं (आनशुः) पाया है ॥१॥
Connotation: - यद्यपि अल्पज्ञ मनुष्य सब सृष्टियों के चलानेवाले जगदीश्वर के अनन्त गुणों को नहीं जान सकता, तो भी वह उसकी महिमा और परम ऐश्वर्य को विचारते-विचारते और पुरुषार्थ करते-करते अवश्य आनन्द पाता है ॥१॥
Footnote: यह सूक्त ऋग्वेद में है-८।३।१३, १४ ॥ १−(कत्) कथम् (नव्यः) अ० २०।३६।७। नवीयः। नवतरं कर्म (अतसीनाम्) अत्यविचमितमि०। उ० ३।११७। अत सातत्यगमने-असच्, गौरादित्वाद् ङीष्। संततगामिनीनां सृष्टीनाम् (तुरः) तुर वेगे-क्विप्। प्रेरकस्य परमेश्वरस्य (गृणीत) गॄ विज्ञापे-लिङ्। गारयेत। वर्णयेत (मर्त्यः) मनुष्यः (नहि) न कदापि (नु) प्रश्ने (अस्य) परमेश्वरस्य (महिमानम्) महत्त्वम् (इन्द्रियम्) इन्द्रलिङ्गम्। परमैश्वर्यम् (स्वः) सुखम् (गृणन्तः) स्तुवन्तो जनाः (आनशुः) अश्नोतेर्लिटि परस्मैपदं छान्दसम्। प्रापुः ॥