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श॒क्रो वाच॒मधृ॑ष्टा॒योरु॑वाचो॒ अधृ॑ष्णुहि। मंहि॑ष्ठ॒ आ म॑द॒र्दिवि॑ ॥

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शक्र: । वाचम् । अधृष्टाय । उरुवाच: । अधृष्णुहि ॥ मंहिष्ठ: । आ । मदर्दिवि ॥४९.२॥

Atharvaveda » Kand:20» Sukta:49» Paryayah:0» Mantra:2


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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

ईश्वर की उपासना का उपदेश।

Word-Meaning: - [हे विद्वान् !] (शक्रः) शक्तिमान् तू (उरुवाचः) बहुत बड़ी वाणीवाले [परमेश्वर] की (वाचम्) वाणी को (अधृष्टाय) डरे हुए पुरुष के लिये (अधृष्णुहि) मत शक्तिहीन कर। वह [परमेश्वर] (मदर्दिवि) दीनता जीतने में (आ) सब ओर से (मंहिष्ठः) अत्यन्त उदार है ॥२॥
Connotation: - विद्वान् पुरुष दीन-हीन पुरुषों के सुधार के लिये संकोच छोड़कर शक्तिमती वेदवाणी का उपदेश करें, क्योंकि परमात्मा उद्योगी के लिये महादानी है ॥२॥
Footnote: सूचना−पं० सेवकलाल कृष्णदास परिशोधित संहिता में इस मन्त्र का यह पाठ है−श॒क्रं वा॒चाभिष्टु॑हि घो॒रं वा॒चाभिष्टु॑हि। मंहि॑ष्ठ॒ आ म॑दद्द्वि॒वि ॥२॥ [हे विद्वान् !] (वाचा) वाणी से (शक्रम्) शक्तिमान् [परमेश्वर] की (अभिष्टुहि) सब ओर से बड़ाई कर, (वाचा) वाणी से (घोरम्) भयङ्कर [विघ्ननाशक] की (अभिष्टुहि) सब प्रकार स्तुति कर। (मंहिष्ठः) वह अत्यन्त उदार (दिवि) जीतने की इच्छा में (आ) सब ओर से (मदत्) आनन्ददाता है ॥२॥मनुष्य अनेक विद्याएँ प्राप्त करके जगदीश्वर परमात्मा के गुणों का ग्रहण करके संसार में विजयी होकर सुख पावें ॥२॥ २−(शक्रः) शक्तिमांस्त्वम् (वाचम्) वाणीम् (अधृष्टाय) ञिधृषा प्रागल्भ्ये-क्त। अप्रगल्भाय। भयभीताय (उरुवाचः) विस्तीर्णवाणीयुक्तस्य परमेश्वरस्य (अधृष्णुहि) नञ्+धृष शक्तिबन्धे-लोट्। नञ्। पा० २।२।६। इति नञ्तत्पुरुषसमासः। नञो नलोपस्तिङि क्षेपे। वा०। पा० २।२।६। तिङा सह समासे नञो नलोपः। शक्तिहीनां मा कुरु (मंहिष्ठः) अतिशयेन दाता (आ) समन्तात् (मदर्दिवि) प्राततेररन्। उ० ।९। मदी हर्षग्लेपनयोः-अरन्, ग्लेपनादैन्यम्+दिवु विजिगीषायाम्-डिवि। दैन्यस्य विजिगीषायाम् ॥ २−(शक्रम्) शक्तिमन्तं परमात्मानम् (वाचा) वाण्या (अभिष्टुहि) सर्वतः प्रशंस (घोरम्) भयङ्करम्। विघ्ननाशकम् (वाचा) (अभिष्टुहि) (मंहिष्ठः) अतिशयेन दाता (आ) समन्तात् (मदत्) संश्चत्तृपद्वेहत्। उ० २।८। मदी, तर्पणे-अतिप्रत्ययः। आनन्दयिता (दिवि) विजिगीषायाम् ॥