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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI
ईश्वर की उपासना का उपदेश।
Word-Meaning: - (यत्) जब (वृषा) बलवान् परमेश्वर (सिषासथः) दान की इच्छा करनेवाला [हुआ], [नव] (शक्राः) समर्थ (देवाः) विद्वानों ने (वाचम्) वाणी [वेदवाणी] को (अन्तरिक्षम्) हृदय आकाश में (आरुहन्) बोया और (सम्) ठीक रीति से (अमदन्) आनन्द पाया ॥१॥
Connotation: - परमात्मा की दी हुई वेदवाणी को पाकर विद्वान् लोग समर्थ होकर आनन्द पावें ॥१॥
Footnote: [सूचना−मन्त्र १-३ ऋग्वेद आदि अन्य वेदों में नहीं है, और इनका पदपाठ भी गवर्नमेन्ट बुकडिपो बम्बई के पुस्तक में नहीं है, आगे सूचना−सूक्त ४८ मन्र १-३ देखो ॥]सूचना−पं० सेवकलाल कृष्णदास परिशोधित संहिता में इस मन्त्र का यह पाठ है−यच्छ॒क्रं वाच॒ आरु॑हन्न॒न्तरि॑क्षं॒ सिषा॑सतीः। सं दे॒वो अ॑मद॒द् वृषा॑ ॥१॥ (यत्) जब (अन्तरिक्षम्) हृदय आकाश को (सिषासतीः) सेवने की इच्छा करती हुई (वाचः) वाणियाँ (शक्रम्) समर्थ [जीव] को (आरुहन्) प्रकट हुई, [तब] (देवः) विजय चाहनेवाले (वृषा) बलवान् पुरुष ने (सम्) ठीक-ठीक (अमदत्) आनन्द पाया ॥१॥जब मनुष्य हृदय के भाव प्रकट करने के लिये परमेश्वरनियम से बोलने की शक्ति पाता है, तब वह व्यवहारों की सिद्धि करके सुखी होता है ॥१॥ १−(यत्) यदा (शक्राः) समर्थाः (वाचः) वाणीम् (आरुहन्) बीजवत् स्थापितवन्तः (अन्तरिक्षम्) हृदयाकाशं प्रति (सिषासथः) शीङ्शपिरुगमि०। उ० ३।११३। षणु दाने-सनि अथप्रत्ययः। दानेच्छुकः-आसीत् इति शेषः (सम्) सम्यक् (देवाः) विद्वांसः (अमदन्) आनन्दं प्राप्नुवन् (वृषा) बलिष्ठः परमेश्वरः ॥ १−(यत्) यदा (शक्रम्) समर्थजीवम् (वाचः) वाण्यः (आरुहन्) प्रादुरभवन् (अन्तरिक्षम्) हृदयाकाशम् (सिषासतीः) षण सम्भक्तौ, सन्, शतृ, ङीप्। सेवितुमिच्छन्त्यः (सम्) सम्यक् (देवः) विजिगीषुः (अमदत्) हर्षं प्राप्नोत् (वृषा) बलवान् पुरुषः ॥