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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
Word-Meaning: - (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (त्वम्) तूने (शर्म) शरण और (हव्यम्) हव्य [विद्वानों के योग्य अन्न] (पारावतेभ्यः) पार और अपार देशवाले लोगों के लिये (रिणाः) पहुँचाया है। (स्तुवते) स्तुति करनेवाले (विप्राय) बुद्धिमान् के लिये (वसुवनिम्) धनों का सेवन (दुरश्रवसे) दुष्ट अपयश मिटाने को (वह) प्राप्त करा ॥११॥
Connotation: - राजा दूर और समीपवाली प्रजा को शरण में रख कर विद्या और धन से उनकी उन्नति करे ॥११॥
Footnote: संहिता के (शर्मरिणाः) एक पद के स्थान पर [शर्म रिणाः] दो पद मानकर हमने अर्थ किया है ॥ ११−(त्वम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (शर्म) शरणम्। सुखम् (रिणाः) री गतिरेषणयोः−लङ्। अरिणाः। प्रापितवानसि (हव्यम्) हु−यत्। देवयोग्यान्नम् (पारावतेभ्यः) पार+अवार−वत्, अण्, पृषोदरादिरूपम्। पारावतघ्नीं पारावारघातिनीं पारं परं भवत्यवारमवरम्−निरु० २।२४। पारावारदेशे विद्यमानेभ्यः (विप्राय) मेधाविने (स्तुवते) स्तुतिं कुर्वते (वसुवनिम्) छन्दसि वनसनरक्षिमथाम्। पा० ३।२।२७। वसु+वन सम्भक्तौ−इन्। धनानां सेवनम् (दुरश्रवसे) क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। पा० २।३।१४। इति तुमुनः कर्मणिः चतुर्थी। दुर् दुष्टम् अश्रवः अपयशः, तन्नाशयितुम्। दुष्टापकीर्तिनाशनाय (वह) प्रायय ॥