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निगृ॑ह्य॒ कर्ण॑कौ॒ द्वौ निरा॑यच्छसि॒ मध्य॑मे। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥

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निगृह्य । कर्णकौ । द्वौ । निरायच्छसि । मध्यमे ॥ न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.३॥

Atharvaveda » Kand:20» Sukta:133» Paryayah:0» Mantra:3


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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

स्त्रियों के कर्तव्य का उपदेश।

Word-Meaning: - (मध्यमे) हे मध्यस्थ होनेवाली ! [स्त्री] (द्वौ) दोनों (कर्णकौ) कोमल कानों को (निगृह्य) वश में करके [सुनने में लगवाकर] (निरायच्छसि) [सन्तानों को] तू नियम में चलाती है। (कुमारि) हे कुमारी ! .............. [म० १] ॥३॥
Connotation: - माता आदि ध्यान दिलाकर बालकों को सुशिक्षा देवें, स्त्री आदि ........... [म० १] ॥३॥
Footnote: भगवान् यास्क का वचन है-निरु० २।४ ॥ य आतृष्णत्यवितथेन कर्णावदुःखं कुर्वन्नमृतं सम्प्रयच्छन्। तं मन्येत पितरं मातरं च तस्मै न द्रुह्येत् कतमच्चनाह ॥ (यः) जो [आचार्य] (अदुःखं कुर्वन्) दुःख न करता हुआ, (अमृतं सम्प्रयच्छन्) अमृत देता हुआ (अवितथेन) सत्य [वेदज्ञान] से (कर्णौ) दोनों कानों को (आतृणत्ति) खोल देता है, (तम्) उसको (मातरं पितरं च) माता और पिता (मन्येत) वह [शिष्य] माने, (तस्मै) उससे (कतमच्चनाह) किसी प्रकार कभी (न द्रुह्येत्) बुराई न करे ॥ ३−(निगृह्य) वशीकृत्य (कर्णकौ) अनुकम्पायाम्-कन्। कोमलकर्णौ (द्वौ) (निरायच्छसि) निश्चयेन समन्तात् नियमयसि (मध्यमे) हे मध्यभवे स्त्रि। अन्यत् म० १ ॥