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आ यद्दुवः॑ शतक्रत॒वा कामं॑ जरितॄ॒णाम्। ऋ॒णोरक्षं॒ न शची॑भिः ॥

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आ । यत् । दुव: । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । आ । कामम् । जरितॄणाम् ॥ ऋणो: । अक्षम् । न । शचीभि: ॥१२२.३॥

Atharvaveda » Kand:20» Sukta:122» Paryayah:0» Mantra:3


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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

सभापति के लक्षण का उपदेश।

Word-Meaning: - (यत्) क्योंकि, (शतक्रतो) हे सैकड़ों बुद्धियों वा कर्मोंवाले ! [सभापति] (जरितॄणाम्) स्तुति करनेवालों की (दुवः) सेवा को (कामम्) अपनी इच्छा के अनुसार (आ) सब ओर से (आ) पूरी रीति पर (ऋणोः) तू पाता है, (न) जैसे (अक्षम्) धुरा (शचीभिः) अपने कर्मों से [रथ को प्राप्त होता है] ॥३॥
Connotation: - जैसे धुरा पहियों के बीच में रहकर सब बोझ उठाकर रथ को चलाता है, वैसे ही सभापति राज्य का सब भार अपने ऊपर रखकर प्रजा को उद्योगी बनावें और प्रजा भी उसकी सेवा करती रहे ॥२, ३॥
Footnote: ३−(आ) समन्तात् (यत्) यतः (दुवः) अ० २०।६८।। परिचरणम् (शतक्रतो) बहुप्रज्ञ। बहुकर्मन् (आ) अभितः। पूरणतः (कामम्) यथेष्टम् (जरितॄणाम्) स्तावकानाम् (ऋणोः) म० २। प्राप्नोषि (अक्षम्) धूः (न) इव (शचीभिः) कर्मभिः ॥