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यद्वा॑ शक्र परा॒वति॑ समु॒द्रे अधि॒ मन्द॑से। अ॒स्माक॒मित्सु॒ते र॑णा॒ समिन्दु॑भिः ॥

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यत् । वा । शक्र । पराऽवति । समुद्रे । अधि । मन्दसे ॥ अस्माकम् । इत् । सुते । रण । सम् । इन्दुऽभि: ॥१११.२॥

Atharvaveda » Kand:20» Sukta:111» Paryayah:0» Mantra:2


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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

Word-Meaning: - (शक्र) हे शक्तिमान् ! (मनुष्य) (यत् वा) अथवा (परावति) बहुत दूरवाले (समुद्रे) समुद्र [जलनिधि वा आकाश] में (अधि) अधिकारपूर्वक (इन्दुभिः) ऐश्वर्य व्यवहारों के साथ [तत्त्व रस को] (सम्) ठीक-ठीक (मन्दसे) तू हर्षयुक्त करता है, (सत्पते) हे सत्पुरुषों के स्वामी ! (यत् वा) जब कि तू (सुन्वतः) उस तत्त्वरस निचोड़नेवाले (यजमानस्य) यजमान का (वृधः) बढ़ानेवाला (असि) है, (यस्य) जिस [यजमान] के (उक्थे) वचन में (वा) निश्चय करके (इन्दुभिः) ऐश्वर्य व्यवहारों के साथ (सम्) ठीक-ठीक (रण्यसि) तू उपदेश करता है, [तब] (अस्माकम् इत्) हमारे भी (सुते) सिद्ध किये हुए तत्त्वरस में (रण) उपदेश कर ॥२, ३॥
Connotation: - मनुष्य तत्त्वरस की प्राप्ति से परमात्मा की आज्ञा पालता हुआ, तथा समष्टिरूप से सब मनुष्यों का और व्यष्टिरूप से प्रत्येक मनुष्य का ऐश्वर्य बढ़ाता हुआ उन्नति करके सदा धर्म का उपदेश करें ॥१-३॥
Footnote: २−(यत् वा) अथवा (शक्र) हे शक्तिमान् (परवति) दुरगते (समुद्रे) जलनिधौ। आकाशे (अधि) अधिकृत्य (मन्दसे) म० १। मोदयसि। आनन्दयसि (अस्माकम्) (इत्) एव (सुते) संस्कृते तत्त्वरसे (रण) शब्दय। उपदिश (सम्) सम्यक् (इन्दुभिः) ऐश्वर्यव्यवहारैः ॥