Go To Mantra

यत्पुरु॑षं॒ व्यद॑धुः कति॒धा व्यकल्पयन्। मुखं॒ किम॑स्य॒ किं बा॒हू किमू॒रू पादा॑ उच्यते ॥

Mantra Audio
Pad Path

यत्। पुरुषम्। वि। अदधुः। कतिऽधा। वि। अकल्पयन्। मुखम्। किम्। अस्य। किम्। बाहू इति। किम्। ऊरू इति। पादौ। उच्येते इति ॥६.५॥

Atharvaveda » Kand:19» Sukta:6» Paryayah:0» Mantra:5


Reads times

PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

सृष्टिविद्या का उपदेश।

Word-Meaning: - (यत्) जब (पुरुषम्) पुरुष [परिपूर्ण परमात्मा] को (वि) विविध प्रकार से (अदधुः) उन [विद्वानों] ने धारण किया, (कतिधा) कितने प्रकार से [उसको] (वि) विशेष करके (अकल्पयन्) उन्होंने माना। (अस्य) इस [पुरुष] का (मुखम्) मुख (किम्) क्या [कहा जाता है], (बाहू) दोनों भुजाएँ (किम्) क्या, (ऊरू) दोनों घुटने और (पादौ) दोनों पाँव (किम्) क्या (उच्येते) कहे जाते हैं ॥५॥
Connotation: - विद्वान् लोग परमात्मा के सामर्थ्यों को विचारते हुए कल्पना करें, जैसे मनुष्य के मुखादि अङ्ग शरीर की पुष्टि करते हैं, वैसे ही इस बड़ी सृष्टि में धारण-पोषण के लिये ऐसे बड़े परमात्मा के मुख के समान श्रेष्ठ, भुजाओं के समान बल को धारण करनेवाला, घुटनों के समान सबके बीच में व्यवहार करनेवाला और पाँवों के समान चल-फिर के सेवा करनेवाला कौन है ? इसका उत्तर अगले मन्त्र में है ॥५॥
Footnote: यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।९०।११ और यजुर्वेद ३१।१० ॥ ५−(यत्) यदा (पुरुषम्) म० १। पूर्णं परमात्मानम् (वि) विविधम् (अदधुः) धारितवन्तः। समाहितवन्तः (कतिधा) कतिभिः प्रकारैः (वि) विशेषेण (अकल्पयन्) कल्पितवन्तः। निश्चितवन्तः (मुखम्) मुखस्थानीयं श्रेष्ठम् (किम्) (अस्य) पुरुषस्य (किम्) (बाहू) भुजाविव बलेन धारकः (किम्) (ऊरू) जङ्घे यथा सर्वमध्ये व्यवहारसाधकः (पादौ) पादाविव गमनागमनेन सेवाशीलः (उच्येते) कथ्येते ॥