Reads times
PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI
सृष्टिविद्या का उपदेश।
Word-Meaning: - (यत्) जब (हविषा) ग्रहण करने योग्य (पुरुषेण) पुरुष [पूर्ण परमात्मा] के साथ [अर्थात् परमात्मा को यजमान मानकर] (देवाः) विद्वान् लोगों ने (यज्ञम्) यज्ञ [ब्रह्माण्डरूप हवनव्यवहार] को (अतन्वत) फैलाया (वसन्तः) वसन्त ऋतु (अस्य) इस [यज्ञ] का (आज्यम्) घी, (ग्रीष्मः) ग्रीष्म ऋतु (इध्मः) इन्धन और (शरत्) शरद् ऋतु (हविः) हवनद्रव्य (आसीत्) हुआ ॥१०॥
Connotation: - जब विद्वान् लोग इस ब्रह्माण्ड को ऐसे सिद्ध कर रहे हों जैसे कोई मनुष्य यज्ञ कर रहा हो, तो विद्वानों को जानना चाहिये कि सृष्टि के लिये वसन्त, ग्रीष्म और शरद् ऋतु परमात्मा ने ऐसे उपयोगी बनाये हैं, जैसे यज्ञ के लिये घृत, समिधा और अन्य हवन सामग्री होते हैं। इस मन्त्र में वसन्त, ग्रीष्म और शरद् तीन ही ऋतुएँ वर्ष के माने हैं जैसे ग्रीष्म, वर्षा और शीत तीन ऋतु प्रायः माने जाते हैं ॥१०॥
Footnote: यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।९०।६। और यजुर्वेद में ३१।१४। और इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध आ चुका है-अथर्व० ७।५।४ ॥ १०−(यत्) यदा (पुरुषेण) पूर्णेन परमात्मना (हविषा) आदातव्येन ग्राह्येण (देवाः) विद्वांसः (यज्ञम्) ब्रह्माण्डरूपहवनव्यवहारम् (अतन्वत) विस्तारितवन्तः। कल्पितवन्तः (वसन्तः) ऋतुविशेषः (अस्य) यज्ञस्य (आज्यम्) घृतं यथा (ग्रीष्मः) निदाघकालः (इध्मः) काष्ठं यथा (शरत्) ऋतुविशेषः (हविः) होतव्यं द्रव्यं यथा ॥