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सिं॒हस्य॒ रात्र्यु॑श॒ती पीं॒षस्य॑ व्या॒घ्रस्य॑ द्वी॒पिनो॒ वर्च॒ आ द॑दे। अश्व॑स्य ब्र॒ध्नं पुरु॑षस्य मा॒युं पु॒रु रू॒पाणि॑ कृणुषे विभा॒ती ॥

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सिंहस्य। रात्री। उशती। पींषस्य। व्याघ्रस्य। द्वीपिनः। वर्चः। आ। ददे। अश्वस्य। ब्रध्नम्। पुरुषस्य। मायुम्। पुरु। रूपाणि। कृणुषे। विऽभाती ॥४९.४॥

Atharvaveda » Kand:19» Sukta:49» Paryayah:0» Mantra:4


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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

रात्रि में रक्षा का उपदेश।

Word-Meaning: - (उशती) प्रीति करती हुई (रात्री) रात्री ने (सिंहस्य) सिंह की, (पींषस्य) चूरण करनेवाले [हाथी] की, (व्याघ्रस्य) बाघ की और (द्वीपिनः) चीते की (वर्चः) कान्ति को, (अश्वस्य) घोड़े के (ब्रध्नम्) मूल [वेग] को और (पुरुषस्य) पुरुष की (मायुम्) ललकार को (आ ददे) ग्रहण किया है, (विभाती) चमकती हुई तू (पुरु) बहुत से (रूपाणि) रूपों को (कृणुषे) बनाती है ॥४॥
Connotation: - जो मनुष्य रात्रिरूप कठिनाई में सिंह आदि के समान पराक्रमी होते हैं, वे ही कीर्तिमान् और तेजस्वी होते हैं ॥४॥
Footnote: ४−(सिंहस्य) (रात्री) (उशती) कामयमाना (पींषस्य) पाघ्राघ्माधेट्दृशः शः। पा० ३।१।१३७। इति बाहुलकात् शप्रत्ययः। तस्य सार्वधातुकत्वाद् नुम्, छान्दसो दीर्घः। संचूर्णकस्य गजस्य (व्याघ्रस्य) हिंसकजीवविशेषस्य (द्वीपिनः) व्याघ्रभेदस्य (वर्चः) कान्तिम् (आददे) आहृतवती। प्राप्तवती (अश्वस्य) तुरङ्गस्य (ब्रध्नम्) मूलम्। वेगम् (पुरुषस्य) मनुष्यस्य (मायुम्) माङ् शब्दे-उण्, युक् च। शब्दम् (पुरु) पुरूणि (रूपाणि) (कृणुषे) करोषि (विभाती) वि+भा दीप्तौ-शतृ। विशेषेण भासमाना ॥