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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI
रोगनाश करने का उपदेश।
Word-Meaning: - (शीर्षलोकम्) शिर में स्थानवाले [शिर में पीड़ा करनेवाले], (तृतीयकम्) तिजारी, और (यः) जो (सदन्दिः) सदा फूटन करनेवाला (च) और (हायनः) प्रतिवर्ष होनेवाला [ज्वर] है। (विश्वधावीर्य) हे सब प्रकार सामर्थ्यवाले [कुष्ठ !] (तक्मानम्) उस दुःखित जीवन करनेवाले ज्वर को (अधराञ्चम्) नीचे स्थान में (परा सुव) दूर गिरादे ॥१०॥
Connotation: - कुष्ठ महौषध के सेवन से सब प्रकार के ज्वर नष्ट होते हैं ॥१०॥
Footnote: इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध आ चुका है-अ०५।२२।३॥१०−(शीर्षलोकम्) शिरसि स्थानयुक्तम्। मस्तकपीडकम् (तृतीयकम्) अ०१।२५।४। स्वार्थे कन्। तृतीयदिने आगच्छन्तम् (सदन्दिः) अ०५।२२।१३। सदम्+दाप् छेदने दो अवखण्डने वा-कि। सदा खण्डकम्। पीडकम् (यः) (च) (हायनः) अ०६।१४।३। हायन-अर्शआद्यच्। प्रतिवर्षभवः (तक्मानम्) कृच्छ्रजीवनकरं ज्वरम् (विश्वधावीर्य) हे सर्वथा सामर्थ्योपेत (अधराञ्चम्) अ०५।२२।३। निम्नदेशम् (परा) दूरे (सुव) प्रेरय ॥