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शृङ्गा॑भ्यां॒ रक्षो॑ नुदते॒ मूले॑न यातुधा॒न्यः। मध्ये॑न॒ यक्ष्मं॑ बाधते॒ नैनं॑ पा॒प्माति॑ तत्रति ॥

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शृङ्गाभ्याम्। रक्षः। नुदते। मूलेन। यातुऽधान्यः। मध्येन। यक्ष्मम्। बाधते। न। एनम्। पाप्मा। अति। तत्रति ॥३६.२॥

Atharvaveda » Kand:19» Sukta:36» Paryayah:0» Mantra:1


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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

सबकी रक्षा का उपदेश।

Word-Meaning: - वह [शतवार] (शृङ्गाभ्याम्) अपने दोनों सींगों [अगले भागों] से (रक्षः) राक्षस और (मूलेन) जड़ से (यातुधान्यः) दुःखदायिनी पीड़ाओं को (नुदते) ढकेलता है। (मध्येन) मध्य भाग से (यक्ष्मम्) राजरोग को (बाधते) हटाता है, (एनम्) इसको (पाप्मा) [कोई] अनहित (न) नहीं (अति तत्रति) दबा सकता है ॥२॥
Connotation: - इस सर्वौषध का प्रत्येक अङ्ग प्रत्येक रोग को हराता है ॥२॥
Footnote: २−(शृङ्गाभ्याम्) शृङ्गवदग्रभागाभ्याम् (रक्षः) राक्षसम्। रोगजन्तुम् (नुदते) प्रेरयति (मूलेन) अधःप्रदेशेन (यातुधान्यः) यातुधानीः। दुःखप्रदाः पीडाः (मध्येन) मध्यभागेन (यक्ष्मम्) राजरोगम् (बाधते) विलोडयति (न) निषेधे (एनम्) शतवारम् (पाप्मा) दुष्टव्यवहारः (अति) अतीत्य (तत्रति) तॄ प्लवनतरणयोः-श्लुः शश्चेति विकरणद्वयम्। तरति। अभिभवति ॥