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श॒तका॑ण्डो दुश्च्यव॒नः स॒हस्र॑पर्ण उत्ति॒रः। द॒र्भो य उ॒ग्र ओष॑धि॒स्तं ते॑ बध्ना॒म्यायु॑षे ॥

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शतऽकाण्डः। दुःऽच्यवनः। सहस्रऽपर्णः। उत्ऽतिरः। दर्भः। यः। उग्रः। ओषधिः। तम्। ते। बध्नामि। आयुषे ॥३२.१॥

Atharvaveda » Kand:19» Sukta:32» Paryayah:0» Mantra:1


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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

शत्रुओं के हराने का उपदेश।

Word-Meaning: - (शतकाण्डः) सैकड़ों सहारे देनेवाला, (दुश्च्यवनः) न हटनेवाला, (सहस्रपर्णः) सैकड़ों पालनोंवाला, (उत्तिरः) उत्कृष्ट, (यः) जो (दर्भः) दर्भ [शत्रुविदारक परमेश्वर वा औषध विशेष] (उग्रः) उग्र (ओषधिः) ओषधिरूप है। (तम्) उसको (ते) तेरे लिये (आयुषे) [दीर्घ] जीवन के लिये (बध्नामि) मैं धारण करता हूँ ॥१॥
Connotation: - हे मनुष्यो ! जैसे परमात्मा अनेक प्रकार सहारा देनेवाला दृढ़ स्वभाव है, और जैसे उत्तम औषध से सुख मिलता है, वैसे ही तुम लोग उस जगदीश्वर की शरण में रहकर सबके पालन करने का उपाय करो ॥१॥
Footnote: १−(शतकाण्डः) कडि भेदने रक्षणे च-घञ्। बहुरक्षणोपेतः (दुश्च्यवनः) च्युङ् गतौ-युच्। दुःखेन च्यावनीयः अनिवारणीयः (सहस्रपर्णः) पॄ पालनपूरणयोः-न प्रत्ययः। अनन्तपालनसामर्थ्योपेतः (उत्तिरः) उत्+तॄ प्लवनतरणयोः-क प्रत्ययः। उत्कृष्टः (दर्भः) अ०१९।२८।१। शत्रुविदारकः परमेश्वरः (यः) (उग्रः) प्रचण्डः (ओषधिः) ओषधिरूपः (तम्) (ते) तुभ्यम् (बध्नामि) धारयामि (आयुषे) दीर्घजीवनाय ॥