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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI
पितरों के सत्कार का उपदेश।
Word-Meaning: - (स्वभानवः) अपना हीप्रकाश रखनेवाले, (विप्राः) बुद्धिमान्, (यविष्ठाः) महाबली [पितरों] ने (अक्षन्)भोजन खाया है और (अमीमदन्त) आनन्द पाया है, उन्होंने (हि) ही (प्रियान्) अपनेप्रिय [बान्धवों] को (अव) निश्चय करके (अधूषत) शोभायमान किया है और (अस्तोषत)बड़ाई योग्य बनाया है, (ईमहे) [उन से] हम विनय करते हैं ॥६१॥
Connotation: - मनुष्यों को विनय करकेविद्यावृद्ध, बलवृद्ध और वयोवृद्ध पुरुषों का सदा सत्कार करना चाहिये, जिससे वेप्रसन्न होकर उत्तम-उत्तम शिक्षा दिया करें ॥६१॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद मेंहै−१।८२।२। यजुर्वेद में ३।५१ और सामवेद में−पू० ५।३।७ ॥
Footnote: ६१−(अक्षन्) अद भक्षणे-लुङ्, घस्लादेशः। अघसन्। भोगान् भक्षितवन्तः (अमीमदन्त) मद तृप्तियोगे, चुरादेरात्मनेपदिनश्चङिरूपम्। आनन्दं प्राप्तवन्तः (हि) अवधारणे (अव) निश्चयेन (प्रियान्) प्रीतिकरान् बान्धवान् (अधूषत) धूष कान्तिकरणे-लङ्। तिङा तिङोभवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। बहुवचनस्यैकवचनम्। अधूषन्त। शोभायमानान् कृतवन्तः (अस्तोषत) स्तुत्यान् कृतवन्तः (स्वभानवः) स्वकीया भानुर्दीप्तिः प्रकाशो येषांते (विप्राः) मेधाविनः (यविष्ठाः) युवन्-इष्ठन्। स्थूलदूरयुवह्रस्व०। पा०६।४।१५६। इति वकारस्य लोप उकारस्य च गुणः। अतिशयेन युवानः। निसर्गबलिनः (ईमहे)याच्ञाकर्मा-निघ० ३।१९। याचामहे। प्रार्थयामहे। विनयामः ॥