Reads times
PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI
पितरों की सेवा का उपदेश।
Word-Meaning: - वे [पितर लोग] (अमर्त्यम्) अमर [न मरते हुए पुरुषार्थी], (हव्यवाहम्) ग्रहण करने योग्यपदार्थों के पहुँचानेवाले, (घृतप्रियम्) घी आदि को प्रिय जाननेवाले [जिस] पुरुषको (सम्) यथाविधि [ज्ञान से] (इन्धते) प्रकाशमान करते हैं। (सः) वह [पुरुष] (परावतः) पराक्रम से चलनेवाले (पितॄन्) पितरों को (गतान्) प्राप्त हुए और (निहितान्) संग्रह किये हुए (निधीन्) [रत्न सुवर्ण आदि के] कोशों को (वेद)जानता है ॥४१॥
Connotation: - जो मनुष्य माता-पिता आदि पितरों की सेवा घृत, दुग्ध आदि उत्तम पदार्थों से करते हैं, वे पितृभक्त उनपितरों की कृपा से विद्यारत्न प्राप्त करके बड़े धनी होते हैं ॥४१॥
Footnote: ४१−(सम्)सम्यक्। यथाविधि। ज्ञानेन (इन्धते) प्रकाशयन्ते ते पितरः (अमर्त्यम्)अम्रियमाणम्। पुरुषार्थिनम् (हव्यवाहम्) ग्राह्यपदार्थानां प्रापकम् (घृतप्रियम्) घृतादिकं कामयमानं पुरुषम् (सः) पूर्वोक्तः पुरुषः (वेद) वेत्ति (निहितान्) स्थापितान्। संगृहीतान् (निधीन्) रत्नसुवर्णादिकोशान् (पितॄन्)गतान् इत्यनेन कर्मकारके सम्बन्धः। पालकान् पुरुषान् (परावतः) उपसर्गाच्छन्दसिधात्वर्थे। पा० ५।१।११८। परा+वतिप्रत्ययो धात्वर्थे। परा पराक्रमेण गन्तॄन् (गतान्) अयं सकर्मकः। प्राप्तान् ॥