ब्रह्म की उपासना का उपदेश।
Word-Meaning: - (ते) वे (नृचक्षसः)मनुष्यों के देखनेवाले पुरुष (रयिम् अभि) धन को सब ओर से पाकर (शतधारम्) सैकड़ोंप्रकार से धारण करनेवाले (वायुम्) सर्वव्यापक, (अर्कम्) पूजनीय (स्वर्विदम्) सुखपहुँचानेवाले परमेश्वर को (चक्षते) देखते हैं। (ये) जो पुरुष (सर्वदा) सर्वदा (पृणन्ति) [धन को] भरते हैं (च) और (प्र यच्छन्ति) [सुपात्रों को] देते हैं, (ते) वे लोग (सप्तमातरम्) सात [मन्त्र २८, मस्तक के सात गोलकों] द्वारा बनीहुई (दक्षिणाम्) प्रतिष्ठा को (दुह्रते) दुहते हैं [पाते हैं] ॥२९॥
Connotation: - पुरुषार्थी परोपकारीपुरुष परमात्मा के दिये धन को प्रत्येक स्थान में प्राप्त करके सुपात्रों कोदेकर यशस्वी होवें, क्योंकि जो पुरुष जितेन्द्रिय होकर धन बढ़ाते और सुपात्रोंको देते हैं, वे ही संसार में प्रतिष्ठा पाते हैं ॥२९॥यह मन्त्र कुछ भेद सेऋग्वेद में है−१०।१०७।४ ॥