पितरों और सन्तानों के कर्तव्य का उपदेश।
Word-Meaning: - (ये) जिन (नः) हमारे (पितुः) पिता के (पितरः) पालन करने हारे पिता आदि ने और (ये) जिन (पितामहाः)दादा आदि वयोवृद्धों ने (वसिष्ठाः) अत्यन्त श्रेष्ठ होकर (सोमपीथम्) ऐश्वर्य कीरक्षा को (अनुजहिरे) निरन्तर स्वीकार किया है। (संरराणः) अच्छे प्रकार दान करनेहारा, (उशन्) कामना करने हारा (यमः) संयमी सन्तान (तेभिः) उन (उशद्भिः) कामनाकरने हारों के साथ (हवींषि) देने-लेने योग्य भोजनों को (प्रतिकामम्) प्रत्येककामना में (अत्तु) खावे ॥४६॥
Connotation: - जैसे पूर्वज वृद्धोंने धार्मिक आचरणों से ऐश्वर्यवान् होकर सन्तानों से प्रीति की है, वैसे ही सबसन्तान जितेन्द्रिय होकर उत्तम व्यवहारों से उनकी सेवा करते रहें ॥४६॥यह मन्त्रकुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१५।८ और यजुर्वेद में १९।५१ और इसका पहिला पाद आचुका है-अ० १८।२।४९ ॥