पितरों और सन्तानों के कर्तव्य का उपदेश।
Word-Meaning: - (जातवेदः) हे बड़े धनी (अग्ने) विद्वान् ! (ईडितः) प्रशंसित (त्वम्) तूने (हव्यानि) ग्रहण करने योग्यपदार्थों को (सुरभीणि) ऐश्वर्ययुक्त (कृत्वा) करके (अवाट्) पहुँचाया है। (पितृभ्यः) पितरों [पिता आदि रक्षक महात्माओं] को (स्वधया) अपनी धारणशक्ति से (प्रयता) शुद्ध [वा प्रयत्न से सिद्ध किये] (हवींषि) ग्रहण करने योग्य भोजन (प्र) अच्छे प्रकार (अदाः) तूने दिये हैं, (ते) उन्होंने (अक्षन्) खाये हैं, (देव) हे विद्वान् ! (त्वम्) तू [भी] (अद्धि) खा ॥४२॥
Connotation: - पुत्रादि सन्तान उत्तम-उत्तम पदार्थों से पितरों की सेवा करें और प्रयत्न से शुद्ध बनाये हुए भोजनउन्हें खिलावें और आप खावें, जिस से सब स्वस्थ रहकर आनन्द भोगें ॥४२॥यह मन्त्रकुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१५।१२ और यजुर्वेद में−१९।६६ तथा उत्तरार्द्ध आगेहै-अ० १८।४।६५ ॥