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इ॒यं क॑ल्या॒ण्यजरा॒ मर्त्य॑स्या॒मृता॑ गृ॒हे। यस्मै॑ कृ॒ता शये॒ स यश्च॒कार॑ ज॒जार॒ सः ॥

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इयम् । कल्याणी । अजरा । मर्त्यस्य । अमृता । गृहे । यस्मै । कृता । शये । स: । य: । चकार । जजार । स: ॥८.२६॥

Atharvaveda » Kand:10» Sukta:8» Paryayah:0» Mantra:26


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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI

परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।

Word-Meaning: - (इयम्) यह (कल्याणी) कल्याणी [आनन्दकारिणी, प्रकृति जगत् की सामग्री] (अजरा) अजर, (अमृता) अमर होकर (मर्त्यस्य) मरणधर्मी [मनुष्य] के (गृहे) घर में है। (यस्मै) जिस के लिये [जिस ईश्वर की आज्ञा मानने के लिये] (कृता) वह सिद्ध की गई है, (सः) वह [परमेश्वर, उस प्रकृति में] (शये) सोता है, (यः) जिसने [उस प्रकृति को] (चकार) सिद्ध किया था, (सः) वह [परमेश्वर] (जजार) स्तुतियोग्य हुआ ॥२६॥
Connotation: - प्रकृति जगत् का कारण प्रत्येक मनुष्य आदि प्राणी के शरीर में है। परमेश्वर ने प्रकृति को अनेक उपकारों के लिये कार्यरूप जगत् में परिणत किया है, वह परमात्मा सबका उपास्य देव है ॥२६॥
Footnote: २६−(इयम्) दृश्यमाना प्रकृतिः (कल्याणी) माङ्गलिका (अजरा) जराशून्या। अनिर्बला (मर्त्यस्य) मरणधर्मणो मनुष्यस्य (अमृता) मरणरहिता। पुरुषार्थशीला (गृहे) शरीर इत्यर्थः (यस्मै) परमेश्वराय। तदाज्ञापालनाय (कृता) निष्पादिता (शये) शेते। वर्तते प्रकृतौ (सः) परमेश्वरः (यः) (चकार) कृतवान् प्रकृतिं कार्यरूपेण (जजार) जॄ स्तुतौ-लिट्। जरा स्तुतिर्जरतेः स्तुतिकर्मणः-निरु० १०।८। जजरे। स्तुत्यो बभूव (सः) ईश्वरः ॥