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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI
सर्प रूप दोषों के नाश का उपदेश।
Word-Meaning: - [हे सर्प !] (यत् विषम्) जो विष (अग्नौ) अग्नि में, (सूर्ये) सूर्य में, (पृथिव्याम्) पृथिवी में, और (यत्) जो (ओषधीषु) ओषधियों [अन्न आदि पदार्थों] में है। (कान्दाविषम्) मेघ के उत्पन्न [ओषधियों] में व्यापक, (कनक्नकम्) गति [उद्योग] नाशक (ते विषम्) तेरा विष (निरैतु) निकल जावे, (आ एतु) [निकल] आवे ॥२२॥
Connotation: - मनुष्यों को योग्य है कि अग्नि आदि पदार्थों में अति वृद्धि वा अति न्यूनता के कारण सर्प के विष के समान रोगकारक क्रिया को त्याग कर विचारपूर्वक समता ग्रहण करके स्वस्थ रहें ॥२२॥
Footnote: २२−(कान्दाविषम्) अब्दादयश्च। उ० ४।९८। कनी दीप्तिकान्तिगतिषु-द प्रत्ययः। कन्दो मेघः। तस्यापत्यम्। पा० ४।१।९२। अण्, टाप् कन्दात् मेघात् जातासु ओषधीषु विषं प्रवेशो यस्य तत् (कनक्नकम्) कनी दीप्त्यादिषु अच्+क्नथ वधे−ड, स्वार्थे-कन्। गतिनाशकम्। उद्योगवर्जकम् (ऐतु) आगच्छतु। अन्यत् सुगमं गतं च ॥