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PANDIT KSHEMKARANDAS TRIVEDI
सर्प रूप दोषों के नाश का उपदेश।
Word-Meaning: - (हि) क्योंकि [साँपों के] (शीर्षाणि) शिरों को (सम् अग्रभम्) मैंने पकड़ लिया है, (पौञ्जिष्ठः इव) जैसे महा ओजस्वी पुरुष (कर्वरम्) व्याघ्र को [पकड़ लेता है]। (सिन्धोः) नदी के (मध्यम्) मध्य में (परेत्य) दूर जाकर (अहेः) महाहिंसक [साँप] के (विषम्) विष को (वि अनिजम्) मैंने धो डाला है ॥१९॥
Connotation: - जैसे पराक्रमी मनुष्य व्याघ्र आदि को पकड़ लेता है, वैसे ही बलवान् गुणवान् पुरुष उपद्रवियों की दुष्टता को इस प्रकार नष्ट कर दे, जैसे मल आदि को नदी में बहा देते हैं ॥१९॥
Footnote: १९−(सम्) सम्यक् (हि) यस्मात् कारणात् (शीर्षाणि) मस्तकानि (अग्रभम्) अग्रहम्। अग्रहीषम् (पौञ्जिष्ठः) प्र−ओजिष्ठः प्र−ओजस्वी-इष्ठन्। विन्मतोर्लुक्। पा० ५।३।६५। विनो लुक् छान्दसं रूपम्। ओजिष्ठः। पराक्रमितमः (इव) यथा (कर्वरम्) कॄगृशॄवृञ्चतिभ्यः ष्वरच्। उ० २।१२१। कॄ क्षेपे हिंसायां च यद्वा कृञ् हिंसायाम्−ष्वरच्। हिंसकम्। व्याघ्रम्। राक्षसम् (सिन्धोः) नद्याः (मध्यम्) (परेत्य) दूरं गत्वा (वि) विविधम् (अनिजम्) णिजिर् शौचपोषणयोः−लुङ् (अहेः) म० १। सर्पस्य (विषम्) ॥