जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (गौः) ब्रह्मवाणी ने (मिषन्तम्) आँखें मींचे हुए (वत्सम्) निवासस्थान [संसार] को (अभि) सब ओर (अमीमेत्) फैलाया और (मूर्धानम्) [लोकों से] बन्धन रखनेवाले [मस्तकरूप सूर्य] को (मातवै) बनाने के लिये (उ) निश्चय करके (हिङ्) तृप्ति कर्म (अकृणोत्) बनाया। वह [ब्रह्मवाणी] (सृक्काणम्) सृष्टिकर्ता (घर्मम्) प्रकाशमान [परमात्मा] की (अभि) सब ओर से (वावशाना) अति कामना करती हुई (मायुम्) शब्द (मिमाति) करती है और (पयोभिः) अनेक बलों के साथ (पयते) चलती है ॥६॥
भावार्थभाषाः - परमेश्वर ने प्रलय में लीन संसार को रचकर सूर्य आदि लोकों को परस्पर आकर्षण में ऐसा बनाया, जैसे मस्तक और धड़ होते हैं और उसी ब्रह्म शक्ति द्वारा प्राणियों को सब प्रकार का बल मिलता है ॥६॥ इस मन्त्र के उत्तर भाग का मिलान करो-अ० ९।१।८। (अभि) के स्थान पर [अनु] है−ऋ० १।१६४।२८। तथा निरु० ११।४२ ॥