जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (हिङ्कृण्वती) गति वा वृद्धि करनेवाली, (वसुपत्नी) धन की रक्षा करनेवाली, (वसूनाम्) श्रेष्ठों के बीच (वत्सम्) उपदेशक पुरुष को (इच्छन्ती) चाहनेवाली [वेदवाणी] (मनसा) विज्ञान के साथ (अभ्यागात्) सब ओर से प्राप्त हुई है। (इयम्) यह (अघ्न्या) हिंसा न करनेवाली विद्या (अश्विभ्याम्) दोनों चतुर स्त्री पुरुषों के लिये (पयः) विज्ञान को (दुहाम्) परिपूर्ण करे, (सा) वही [विद्या] (महते) अत्यन्त (सौभगाय) सुन्दर ऐश्वर्य के लिये (वर्धताम्) बढ़े ॥५॥
भावार्थभाषाः - यह जो वेदवाणी संसार का उपकार करती है, उसको सब स्त्री-पुरुष प्राप्त होकर यथावत् वृद्धि करें ॥५॥ यह मन्त्र आ चुका है-अ० ७।७३।८। (अभ्यागात्) के स्थान पर वहाँ [न्यागन्] पद है। पदपाठ में (अभि-आगात्) के स्थान पर [अभि। आ। अगात्] हैं−ऋग्वेद १।१६४।२७। तथा निरु० ११।४५ ॥