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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
काम और क्रोध के निवारण का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (अथो) और भी (आतोदिनौ) दोनों सब ओर से सतानेवालों, (नितोदिनौ) नित्य सतानेवालों, (उत) और (संतोदिनौ) मिलकर सतानेवालों को (इतः) यहाँ पर [हमारे बीच] (यः) जिस किसी (स्त्री) स्त्री [वा] (पुमान्) पुरुष ने (जभार) स्वीकार किया है, (अस्य) उसके (मेढ्रम्) सेचनसामर्थ्य [वृद्धि शक्ति] को (अपि) सर्वथा (नह्यामि) मैं बाँधता हूँ ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो स्त्री-पुरुष काम क्रोध में फँस जाते हैं, वे अनेक पापबन्धनों में पड़कर शक्तिहीन और वृद्धिहीन होकर कष्ट भोगते हैं ॥३॥
टिप्पणी: ३−(आतोदिनौ) तुद व्यथने-णिनि। सर्वतो व्यथनशीलौ (नितोदिनौ) नितरां व्यथयन्तौ (अथो) अनन्तरम् (सन्तोदिनौ) सम्भूय व्यथाकारिणौ (उत) अपि (अपि) सर्वथा (नह्यामि) बध्नामि (अस्य) (प्राणिनः) (मेढ्रम्) सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। मिह सेचने-ष्ट्रन्। सेचनसामर्थ्यम्। वृद्धिशक्तिम् (यः) कश्चित् (इतः) अत्र। अस्मासु (स्त्री) (पुमान्) पुरुषः (जभार) हृञ् स्वीकारे। जहार। स्वीकृतवान् ॥