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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
काम और क्रोध के निवारण का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस [जीव] के (श्यावौ) दोनों गतिशील (विथुरौ) व्यथा देनेवाले, (गृध्रौ) बड़े लोभी [काम क्रोध] (द्याम् इव) आकाश को जैसे (उत् पेततुः) उड़ गये हैं। (उच्छोचनप्रशोचनौ) अत्यन्त दुखानेवाले और सब ओर से दुखानेवाले दोनों (अस्य) इसके (हृदः) हृदय के (उच्छोचनौ) अत्यन्त दुखानेवाले हैं ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य काम क्रोध के वशीभूत होकर बड़ी-बड़ी व्यर्थ कल्पनायें करके सदा दुखी रहते हैं ॥१॥
टिप्पणी: १−(उत्) ऊर्ध्वम् (अस्य) जीवस्य (श्यावौ) अ० ५।५।८। गतिशीलौ। कृष्णपीतवर्णौ वा (विथुरौ) व्यथेः सम्प्रसारणं धः किच्च। उ० १।३९। व्यथ ताडने-उरच्, स च कित्। व्यथनशीलौ। चोरौ (गृध्रौ) सुसूधाञ्गृधिभ्यः क्रन्। उ० २।२४। गृधु अभिकाक्षायाम्−क्रन्। अतिलोभिनौ कामक्रोधौ (द्याम्) आकाशम् (इव) यथा (पेततुः) पत्लृ पतने-लिट्। गतवन्तौ (उच्छोचनप्रशोचनौ) शोचयतेर्नन्द्यादित्वाल् ल्युः। उच्छोचयति अत्यन्तं दुःखयतीति उच्छोचनः, प्रकर्षेण शोचयतीति प्रशोचनः, एवंविधौ कामक्रोधौ (अस्य) (प्राणिनः) (उच्छोचनौ) अत्यन्तं शोचयितारौ (हृदः) हृदयस्य ॥