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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा की स्तुति का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (ध्रुवम्) दृढ़ स्वभाव (सोमम्) ऐश्वर्यवान् राजा को (ध्रुवेण) दृढ़ (हविषा) आत्मदान वा भक्ति के साथ (अव नयामसि) हम स्वीकार करते हैं। (यथा) जिससे [वह] (इन्द्रः) प्रतापी राजा (नः) हमारे लिये (केवलीः) सेवास्वभाववाली (विशः) प्रजाओं को (संमनसः) एकमन (करत्) कर देवे ॥१॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्य विद्वान् राजा का अभिषेक करके प्रार्थना करें कि सब प्रजा को परस्पर मिलाकर प्रसन्न रक्खे ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१७३।६। और यजु० ७।२५ ॥
टिप्पणी: १−(ध्रुवम्) ध्रु स्थैर्ये-अच्। स्थिरम् (ध्रुवेण) दृढेन (हविषा) आत्मदानेन (सोमम्) षु ऐश्वर्ये-मन्। ऐश्वर्यवन्तम् (अत्र नयामसि) स्वीकुर्मः (यथा) येन प्रकारेण (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) प्रतापी (केवलीः) अ० ३।१८।२। केवल-ङीप्। सेवास्वभावाः। सेवनीयाः (विशः) प्रजाः (संमनसः) समानमनस्काः (करत्) कुर्यात् ॥