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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (वयम्) हम लोग (इन्द्रेण) बड़े ऐश्वर्यवाले राजा के साथ (अस्य) इस [शत्रु] के (संभृतम्) एकत्र किये हुए (तत्) उस (वसु) धन को (वि भजामहै) बाँट लेवें। [हे शत्रु !] (वरुणस्य) शत्रुनिवारक राजा की (व्रतेन) व्यवस्था से (ते) तेरी (भ्रजः) तमक और (शिभ्रम्) ढिठाई को (म्लापयामि) मैं मेटता हूँ ॥२॥
भावार्थभाषाः - राजा और राजपुरुष यथान्याय शत्रु को धनदण्ड आदि देकर निर्बल करदें ॥२॥
टिप्पणी: २−(वयम्) धार्मिकाः (तत्) (अस्य) शत्रोः (संभृतम्) संगृहीतम् (वसु) धनम् (इन्द्रेण) परमैश्वर्यवता राज्ञा सह (वि भजामहै) विभक्तं करवामहै (म्लापयामि) म्लै हर्षक्षये, ण्यन्तात् पुगागमः। नाशयामि (भ्रजः) टुभ्राजृ दीप्तौ-असुन्, ह्रस्वः। दीपनम् (शिभ्रम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। शीभृ कत्थने-रक्, ह्रस्वः। आत्मश्लाघाम् (वरुणस्य) शत्रुनिवारकस्य राज्ञः (व्रतेन) धर्मणा व्यवस्थया (ते) तव ॥