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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
विद्वानों की संगति का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे विद्वन् !] तू (एधः) बढ़ा हुआ (असि) है, (एधिषीय) मैं बढ़ूँ, (समित्) तू प्रकाशमान (असि) है, मैं (सम्) ठीक-ठीक (एधिषीय) प्रकाशमान होऊँ। (तेजः असि) तू तेज है, (तेजः) तेज को (मयि) मुझ में (धेहि) धारण कर ॥४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य विद्यावृद्ध, तपोवृद्ध विद्वानों से सुशिक्षा पाकर उन्नति करते हुए तेजस्वी होवें ॥४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−२०।२३ ॥
टिप्पणी: ४−(एधः) एध वृद्धौ-पचाद्यच्। प्रवृद्धः (असि) (एधिषीय) एध वृद्धौ-आशीर्लिङ्। अहं वर्धिषीय (समित्) ञि इन्धी दीप्तौ-क्विपि, नकारलोपः। प्रकाशमानः (असि) (सम्) सम्यक् (एधिषीय) ञिइन्धी दीप्तौ आशीर्लिङि छान्दसो नकारलोपो गुणश्च। इन्धिषीय। अहं समिद्धः प्रदीप्तः भूयासम् (तेजः) प्रकाशस्वरूपः (असि) (तेजः) प्रकाशम् (मयि) ब्रह्मचारिणि (धेहि) धारय ॥