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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
विद्वानों की संगति का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (आपः) हे जल [के समान शुद्धि करनेवाले विद्वानो !] (इदम्) इस [सब] को (प्रवहत) बहा दो, (यत्) जो कुछ [मुझ में] (अवद्यम्) अकथनीय [निन्दनीय] (च च) और (मलम्) मलिन कर्म है। (च) और (यत्) जो कुछ (अनृतम्) झूँठ-मूँठ (अभिदुद्रोह) बुरा चीता है, (च) और (यत्) जो कुछ (अभीरुणम्) निर्भय [निरपराधी] पुरुष को (शेपे) मैंने दुर्वचन कहा है ॥३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य शुद्धाचारी विद्वानों के सत्सङ्ग से अपने आचरण को सुधारें ॥३॥ यह मन्त्र यजुर्वेद में है−६।१७ ॥
टिप्पणी: ३−(इदम्) वक्ष्यमाणम् (आपः) जलानीव शुद्धिकरा विद्वांसः (प्रवहत) अपनयत (अवद्यम्) अकथनीयं निन्द्यम् (च च) समुच्चये (मलम्) अ० २।७।१। मलिनं कर्म (यत्) यत् किञ्चित् (अभिदुद्रोह) द्रुह जिघांसायाम्-लिट्। अनिष्टं चिन्तितवानस्मि (अमृतम्) यथा तथा। असत्यम् (शेपे) शप आक्रोशे-लिट्। दुर्वचनं कथितवानस्मि (अभीरुणम्) क्षधिपिशिमिथिभ्यः कित्। उ० ३।५५। ञिभी भये-उनन्, स च कित्, रुडागमः। निर्भयम्। अनपराधिनम् ॥