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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
आत्मा की उन्नति का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - [हे आत्मा !] (ते) तेरी (रशनाम्) रसरी को, (योक्त्रम्) जोते वा डोरी को और (नियोजनम्) बन्धन गाँठ को (वि) विशेष करके (वि) विविध प्रकार (वि मुञ्चामि) मैं खोलता हूँ। (अग्ने) हे अग्नि [समान बलवान् आत्मा !] (इह) यहाँ पर (एव) ही (त्वम्) तू (अजस्रः) दुःखरहित होकर (एधि) रह ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुषार्थी योगी जन तीन गाँठों अर्थात् आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक क्लेशों से छूट जाते हैं, वे संसार में रह कर सबको सुखी रखते हैं ॥१॥
टिप्पणी: १−(वि मुञ्चामि) वियोजयामि (ते) तव (रशनाम्) आध्यात्मिकक्लेशरूपां रज्जुम् (वि) विशेषेण (योक्त्रम्) अ० ३।३०।६। आधिभौतिकरूपं बन्धनसाधनम् (इह) अस्मिन् संसारे (एव) निश्चयेन (त्वम्) आत्मा (अजस्रः) नमिकम्पिस्म्यजसकमहिंसदीपो रः। पा० ३।२।१६७। नञ्+जसु हिंसायाम्-र प्रत्ययः। अहिंसितः (एधि) भव (अग्ने) अग्निवद् बलवन्नात्मन् ॥