धृ॒षत्पि॑ब क॒लशे॒ सोम॑मिन्द्र वृत्र॒हा शू॑र सम॒रे वसू॑नाम्। माध्य॑न्दिने॒ सव॑न॒ आ वृ॑षस्व रयि॒ष्ठानो॑ र॒यिम॒स्मासु॑ धेहि ॥
पद पाठ
धृषत् । पिब । कलशे । सोमम् । इन्द्र । वृत्रऽहा । शूर । सम्ऽअरे । वसूनाम् । माध्यंदिने । सवने । आ । वृषस्व । रयिऽस्थान: । रयिम् । अस्मासु । धेहि ॥८१.२॥
अथर्ववेद » काण्ड:7» सूक्त:76» पर्यायः:0» मन्त्र:6
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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी
६ मनुष्य धर्म का उपदेश।
पदार्थान्वयभाषाः - (धृषत्) हे निर्भय ! (शूर) हे शूर ! (इन्द्र) हे परम ऐश्वर्यवान् मनुष्य ! (वसूनाम्) धनों के निमित्त (समरे) युद्ध में (वृत्रहा) शत्रुनाशक हो कर (कलशे) [संसाररूप] कलश में [वर्तमान] (सोमम्) अमृत रस को (पिब) पी। (माध्यन्दिने) मध्य दिन के (सवने) काल वा स्थान में (आ वृषस्व) सब प्रकार बली हो, (रयिस्थानः) धनों का स्थान तू (रयिम्) धन को (अस्मासु) हम लोगों में (धेहि) धारण कर ॥६॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य ब्रह्मचर्य आदि पथ्य कर्मों से स्वस्थ, बलवान् और मध्याह्न सूर्य के समान तेजस्वी होकर विद्या धन और सुवर्ण आदि धनसंचय करके सबको सुखी रक्खें ॥६॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−६।४७।६ ॥
टिप्पणी: ६−(धृषत्) ञिधृषा प्रागल्भ्ये-शतृ, छान्दसः शः। हे प्रगल्भ (पिब) (कलशे) अ० ३।१२।७। संसाररूपे घटे वर्तमानम् (सोमम्) अमृतरसम् (इन्द्र) हे परमैश्वर्यवन् जीव (वृत्रहा) शत्रुनाशकः (शूर) वीर (समरे) रणे (वसूनाम्) धनानां निमित्ते (माध्यन्दिने) अ० ७।७२।३। मध्याह्ने भवे (सवने) अ० ७।७२।३। काले स्थाने वा (आ) सर्वतः (वृषस्व) बली भव (रयिस्थानः) रायो धनानि तिष्ठन्ति यस्मिन्त्सः (रयिम्) धनम् (अस्मासु) (धेहि) धर ॥