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आ सु॒स्रसः॑ सु॒स्रसो॒ अस॑तीभ्यो॒ अस॑त्तराः। सेहो॑रर॒सत॑रा लव॒णाद्विक्ले॑दीयसीः ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ । सुऽस्रस: । सुऽस्रस: । असतीभ्य: । असत्ऽतरा: । सेहो: । अरसऽतरा: । लवणात् । विऽक्लेदीयसी: ॥८०.१॥

अथर्ववेद » काण्ड:7» सूक्त:76» पर्यायः:0» मन्त्र:1


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पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी

१-५ रोगनाश

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) सब ओर से (सुस्रसः) बहुत बहनेवाले पदार्थ से (सुस्रसः) बहुत बहनेवाली और (असतीभ्यः) बहुत बुरी [पीड़ाओं] से (असत्तराः) अधिक बुरी, (सेहोः) सेहु [नीरस वस्तु विशेष] से (अरसतराः) नीरस [शुष्कस्वभाव] और (लवणात्) लवण से (विक्लेदीयसीः) अधिक गल जानेवाली [गण्डमालाओं] को [नष्ट कर दिया है-म० ३] ॥१॥
भावार्थभाषाः - मन्त्र १ तथा २ का सम्बन्ध (निर्हाः)नष्ट कर दिया है क्रिया मन्त्र ३ के साथ है। जैसे गण्डमालायें कभी सूख जाती, कभी हरी हो जाती हैं, ऐसी ही कुवासनायें कभी निर्बल और कभी सबल हो जाती हैं ॥१॥
टिप्पणी: १−(आ) समन्तात् (सुस्रसः) सु+स्रसु पतने-क्विप्। अनिदितां हल उपधायाः ङ्किति। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। अतिस्रवणशीलात्पदार्थात् (सुस्रसः) अत्यर्थं स्रवणशीलाः (असतीभ्यः) दुष्टाभ्यः (असत्तराः) अधिक−दुष्टाः (सेहोः) भृमृशीङ्०। उ० १।७। षिञ् बन्धने-उ, हुगागमः। सेहुनामनिःसारपदार्थविशेषात् (अरसतराः) अधिकशुष्काः (लवणात्) नन्दिग्रहिपचादि०। पा० ३।१।१३४। लूञ् छेदने-ल्यु। सैन्धवादिक्षाररसभेदात् (विक्लेदीयसीः) क्लिदू आर्द्रीभावे-घञ्, विविधः क्लेदो यासां ता विक्लेदाः। तत ईयसुन्, ङीप्। शसि रूपम्। अधिकस्रवणशीलाः ॥